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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 33 उसकी पूरी अभिव्यक्ति में / तुम्हारा सहयोग अनिवार्य है ।" (पृ. २७७) अवा में कुम्भ कई दिनों तक तपता है। कुम्भकार रेतिल राख की राशि को फावड़े से हटाता है। उसे कुम्भ के दर्शन होते हैं । कुम्भ के अंग-अंग से संगीत की तरंग निकल रही है। इसी बीच नगर के एक श्रद्धालु सेठ का सेवक गुरु निमित्त जल के आहार दान तथा पाद- प्रक्षालन हेतु कुम्भ को लेने आ पहुँचता है । अग्नि परीक्षा के पश्चात् भी की पुन: परीक्षा ली जाती है । सेवक कुम्भ को सात बार बजाता है और उससे सात स्वर ध्वनित होते हैंसारेगमपधनिः कुम्भ 1 “सा ं“रे‘“ग‘“म यानी / सभी प्रकार के दु:ख पध यानी ! पद - स्वभाव / और / नि यानी नहीं, दु:ख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता ।" (पृ. ३०५ ) इसी प्रसंग में कवि मृदंग की चर्चा करता है। मृदंग के भाँति-भाँति के बोल प्रकृति और पुरुष के भेद खोल देते हैं। कवि लिखते हैं : 'धाधिन् धिन्धा धा धिन धिन्धा वेतन - भिन्ना चेतन - भिन्ना, / तातिन तिन ता ता. तिन तिन ता / का तन चिन्ता, का तन" चिन्ता ?" (पृ.३०६) ... .. 1 कुम्भकार घट का मूल्य नहीं लेता । सेठ कुम्भ का शृंगार चन्दन, केसर, हल्दी और कुंकुम से करता है। मुख पर पान और श्रीफल रखता है और अष्टकोनी चन्दन की चौकी पर कुम्भ को स्थापित करता है। तभी एक अतिथि सन्त आते हैं । वे माटी के घट से ही आहार प्राप्त करते हैं । सन्त समागम की महत्ता दर्शाते हुए कवि लिखते हैं : " सन्त समागम की यही तो सार्थकता है / संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करने वाला भले ही / तुरन्त सन्त- संयत / बने या न बने इसमें कोई नियम नहीं है, / किन्तु वह / सन्तोषी अवश्य बनता है।” (पृ. ३५२) इस सर्ग में कवि का चिन्तन बोल रहा है। पूजा-अर्चना के उपकरण सजीव हो वार्तालाप करते हैं । स्वर्ण की चर्चा करते हुए सन्त कवि लिखते हैं : " परतन्त्र जीवन की आधार शिला हो तुम, / पूँजीवाद के अभेद्य दुर्गम किला हो तुम / और / अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला !" (पृ. ३६६) स्वर्ण कलश को दु:ख है कि उसे अतिथि की सेवा से वंचित रहना पड़ा। इस अपमान का बदला लेने के लिए वह एक आतंकवादी दल का आह्वान करता है । यह दल सेठ के परिवार को इतना कष्ट पहुँचाता है कि त्राहि-त्राहि मच जाती है। सेठ और उसके परिवार की रक्षा प्रकृति एवं मनुष्येतर शक्तियाँ करती हैं। गज और नाग-नागिनियाँ आतंकियों को दूर रखने का प्रयत्न करती हैं। इसी प्रसंग में मत्कुण सामाजिक बोध देता हुआ कहता है : " पाणिग्रहण संस्कार को / धार्मिक संस्कृति का संरक्षक एवं उन्नायक माना है । / परन्तु खेद है कि
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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