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32 :: मूकमाटी-मीमांसा मूर्छाविहीन हों। सबकी मूर्छा दूर हो जाती है । कुम्भकार अपने हाथों मुक्ताओं को बोरियों में भरता है और राजा से निवेदन करता है :
"हे कृपाण-पाणि कृपाप्राण !/कृपापात्र पर कृपा करो
यह निधि स्वीकार कर/इस पर उपकार करो !" (पृ. २२०) धरती की कीर्ति देखकर सागर को क्षोभ होता है । सागर के क्षोभ का प्रतिपक्षी है बड़वानल । सागर पृथ्वी पर प्रलय लाना चाहता है, इसीलिए वह तीन घन बादलों को आमन्त्रित करता है। ये बादल हैं-कृष्ण, नील एवं कापोत रंग के बादल । ये भी जब सफल नहीं होते तो सागर राहु का आह्वान करता है । सूर्यग्रहण होता है, इन्द्र द्वारा मेघों पर वज्रप्रहार किया जाता है । ओलों की वर्षा होती है और भयंकर, प्रलयंकर दृश्य सामने उभरता है :
"ऊपर अणु की शक्ति काम कर रही है/तो इधर''नीचे मनु की शक्ति विद्यमान !/ऊपर यन्त्र है, घुमड़ रहा है/नीचे मन्त्र है, गुनगुना रहा है एक मारक है/एक तारक;/एक विज्ञान है/जिसकी आजीविका तर्कणा है, एक आस्था है/जिसे आजीविका की चिन्ता नहीं।” (पृ. २४९) "जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में।/निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर/वेद से अवेद की ओर बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए/अन्यथा,/वह यात्रा नाम की है
यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।" (पृ. २६७) चतुर्थ खण्ड-अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख
चतुर्थ खण्ड अपेक्षाकृत विस्तृत फलक लिए हुए है । अनेक कथा-प्रसंग इसमें समाए हुए हैं । कुम्भकार कुम्भ को पकाने के लिए अवे का निर्माण करता है । अनेक प्रकार की लकड़ियाँ उसमें नियोजित की जाती हैं। बबूल की लकड़ी अपनी अन्तर्वेदना कुम्भकार से व्यक्त करती है । इस प्रसंग में आधुनिक गणतन्त्र की विसंगति को भी व्यक्त किया गया
है:
"कभी-कभी हम बनाई जाती/कड़ी से और कड़ी छड़ी अपराधियों की पिटाई के लिए।/प्राय: अपराधी-जन बच जाते निरपराध ही पिट जाते,/और उन्हें/पीटते-पीटते टूटती हम इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ?/यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है
या/मनमाना 'तन्त्र' है !" (पृ. २७१) अवा में तपता अपक्व कुम्भ कुम्भकार से कहता है :
"मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है/स्व-पर दोषों को जलाना परम-धर्म माना है सन्तों ने ।/दोष अजीव हैं,/नैमित्तिक हैं, बाहर से आगत हैं कथंचित्;/गुण जीवगत हैं,/गुण का स्वागत है। ...मुझ में जल-धारण करने की शक्ति है/जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है,