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________________ हृदयग्राही काव्य : 'मूकमाटी' डॉ. कैलाश चन्द्र भाटिया आचार्यप्रवर सन्त विद्यासागरजी काव्य प्रतिभा के धनी हैं जिनकी लेखनी से 'माटी' को केन्द्रबिन्दु में रखकर काव्य का ताना-बाना बुना गया है । 'माटी' जैसा निरीह पदार्थ दुर्लभ है जिसको काव्य एवं अध्यात्म में अवगाहन करने के लिए पवित्र घट की सृष्टि की गई। प्रस्तवन' में लिखे श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के इस वाक्य को उद्धृत करना चाहता हूँ: "...माटी की तुच्छता में चरम भव्यता के दर्शन करके उसकी विशुद्धता के उपक्रम को मुक्ति की मंगल-यात्रा के रूपक में ढालना कविता को अध्यात्म के साथ अ-भेद की स्थिति में पहुँचाना है।" वह माटी तुच्छ ही नहीं पद-दलित है । माँ से स्वीकार करती है : "स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से, ''अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !" (पृ. ४) और माँ ही सब कुछ प्रदान कर सकती है, अत: माँ से माटी कहती है : "पद दो, पथ दो/पाथेय भी दो माँ !" (पृ. ५) प्रस्तुत महाकाव्य के चार खण्ड हैं। प्रथम खण्ड-'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' के अन्तर्गत कंकरों से मिश्रित माटी को उसके मूल स्वरूप में लाने की बात कही गई है जिससे वह अपना कोमल वर्ण प्राप्त कर सके । हर पदार्थ अपने मौलिक स्वरूप में आ जाए, यही धर्ममार्ग है । इस खण्ड के माध्यम से कवि ने कुछ सन्देश दिए हैं : मोती-निर्माण के सन्दर्भ में : "जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है/मति जैसी, अग्रिम गति मिलती जाती "मिलती जाती"।" (पृ.८) आस्था का जीवन में महत्त्व : "आस्था के बिना रास्ता नहीं/मूल के बिना चूल नहीं।" (पृ. १०) इसी खण्ड में 'सम्प्रेषण' के महत्त्व को भी प्रतिपादित किया गया है : "पथिक की/अहिंसक पगतली से/सम्प्रेषण प्रवाहित होता है ...सम्प्रेषण में/निखार आता है ।" (पृ.२२) फलतः निष्कर्ष निकलता है : "सम्प्रेषण वह खाद है/जिससे, कि/सद्भावों की पौध/पुष्ट-सम्पुष्ट होती है उल्लास पाती है;/सम्प्रेषण वह स्वाद है;/जिससे कि/तत्त्वों का बोध तुष्ट-सन्तुष्ट होता है/प्रकाश पाता है।" (पृ.२३) कुछ सूक्तियाँ भी इसमें हैं : 0 "अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं।" (पृ. १९२)
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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