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24 :: मूकमाटी-मीमांसा
... सुनो, सुनाती हूँ/कुछ सुनने-सुनाने की बातें (पृ. १२७), मासूम ममता की मूर्ति (पृ. २३९), ... स्वतन्त्र - संज्ञी, ... सर्व-संगों से मुक्त "नि: संग / अंग ही संगीती - संगी जिस का / संघ - समाज सेवी / वात्सल्य - पूर वक्षस्थल ! / ...वैर-विरोधी वेद-बोधि (पृ. २३९), ... पथिक हो कर भी / पवन के पद थमे हैं...(पृ. २३९), काक-कोकिल कपोतों में / चील - चिड़िया चातक - चित में / बाघ - भेड़-बाज - बकों में / ... खग - खरगोशों-खरों-खलों में / ललित ललाम-लजील लताओं में/ पर्वत - परमोन्नत... प्रौढ़ पादपों औ' पौधों में / पल्लव - पातों, फल-फूलों में (पृ. २४० ) पाप-पाखण्ड पर प्रहार (पृ. २४३), प्रशस्त पुण्य (पृ. २४३), सुर-सुराती सुलगती" (पृ. २७८) आदि ।
इसी प्रकार तुकान्तता भी ‘मूकमाटी' की अभिव्यक्ति को सहजता प्रदान करती है । तुकान्तता व्य प्रवाह के साथ भावों के प्रवाह को भी नियन्त्रित करती और साधती चलती है : .
“निशा - उषा (पृ. १), अवसान - शान (पृ. १), सुख - दु:ख (पृ. ४), मुक्ता - युक्ता (पृ. ४), इति - च्युति (पृ. ५), करो-हरो (पृ. ५), शास्वत - भास्वत (पृ. ७), आस्था - वास्ता - रास्ता - शास्ता (पृ. ९), पारणा-धारणा (पृ. १२), आराधना -विराधना (पृ. १२), ओस - होश-जोश-तोष - रोष- दोष- कोष (पृ. २१), घिसाई - सफाई (पृ. २४), ओंकार को नमन - अहंकार का वमन (पृ. २८), दरश - परस - हरष (पृ. ४४), प्रसंग - रंग-अंग-ढंग (पृ. ४७), अवरोधक-उद्बोधक- अतिशोषक- परिपोषक (पृ. ५२), सर अध-फटा - कर अध-कटा (पृ. ९५ ), मोह क्या बला है - मोक्ष क्या कला है ? (पृ. १०९), माधुर्य - चातुर्य (पृ. १०९), दूर-चूर (पृ. ११५), लहर - जहर (पृ. ११५), प्रकृति- आकृति - विकृति (पृ. १२३), लख-परख (पृ. १३४), घाम-धाम - आयाम (पृ. १४०), मनोजओज (पृ. १४०), राग-पराग (पृ. १४१), दु: स्वर - सुस्वर - नश्वर (पृ. १४३), सदय - अदय - अभय - सभय (पृ. १४९), अंकन-मूल्यांकन-वांछन-लांछन (पृ. १४९), चेतन का पतन - चेतन का जतन (पृ. १६२), भ्रमण-रमण (पृ. १६२), गुज़र-नज़र (पृ. १६२), ओट - चोट - खोट-घोट (पृ. १६५), कृति - संस्कृति - जागृत - आकृत (पृ. २४५), फूल - शूलमूल-चूल (पृ. २५७), शरण-वरण - भरण-चरण- संचरण करण-संस्करण (पृ. २६३), जाग-भाग-राग- पराग (पृ. २६३), क्षुधा-सुधा, मंगल-जंगल (पृ. २६३), मति-यति (पृ. २६३), पलक - पुलक- ललक - झलक (पृ. २६४), विदित-मुदित (पृ. २७८), हमें चख लो, तुम - हमें छू लो, तुम - हमें सूँघ लो, तुम (पृ. ३२९),दाह का रोग - आह का योग - चाह का भोग” (पृ. ३९० ) ।
श्री लक्ष्मीचन्द्र जी जैन का यह कथन सर्वथा उपयुक्त ही है : "काव्य की दृष्टि से ‘मूकमाटी' में शब्दालंकार और अर्थालंकारों की छटा नए सन्दर्भों में मोहक है ।... 'मूकमाटी' में कविता का अन्तरंग स्वरूप प्रतिबिम्बित है।” यहाँ मैं इतना और जोड़ना चाहूँगा कि 'मूकमाटी' काव्य भारतीय संस्कृति के द्विविरुद्ध भावों के समन्वय को लेकर चलती है। प्रत्यक्ष जीवन और परोक्ष जीवन, बन्धन- मोक्ष, इहलोक - परलोक, शरीर-आत्मा, गृहस्थ- संन्यास, संचयत्याग, कर्म - ज्ञान- ये सभी काव्य में सहज और प्रतीकात्मक ढंग से व्यक्त हुए हैं । कवि ने लगता है धर्म का साक्षात्कार किया है अथवा उसका स्वयं अनुभव किया है। धर्म, अपने सीमित साम्प्रदायिक अर्थ में नहीं 'धारणात्मक तत्त्व के वाचक शब्द' के रूप में है । धर्म की इतनी सहज व्याख्या 'मूकमाटी' में तभी सम्भव हुई है जब इसके कथ्य की जटिलता अभिव्यक्ति की सहजता के माध्यम से व्यक्त किया गया है । सम्भवतः यही इस काव्य का लक्ष्य और अभिप्रेत भी है तथा यही इसकी सफलता का मूल कारण भी बना है ।
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विचार करें तो उनका स्वभाव तो तुलना है।