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मूकमाटी-मीमांसा :: 23
बालक -सम (पृ. १३४), गुब्बारे -सी (पृ. १३४), नहर की भाँति (पृ. १५५), घृत से भरा घट-सा (पृ. १६५), हवा-सी (पृ. २११), आदेश-तुल्य (पृ. २११), दुर्दिन से घिरा दरिद्र गृही-सा (पृ. २३८), जीर्ण-ज्वरग्रसित काया-सी (पृ. २३८), मुक्तात्मा-सी (पृ. २९८), गुलाब-सम (पृ. ३४०), टिमटिमाते दीपक-सम (पृ. ३५०), वणिक-सम (पृ. ३५०), धूल में गिरे फूल-सम (पृ. ३५०), सिसकते शिशु की तरह (पृ. ३५१), कृष्णपक्ष के चन्द्रमा की-सी (पृ. ३५१), शान्त-रस से विरहित कविता-सम (पृ. ३५१), पंछी की चहक से वंचित प्रभातसम (पृ. ३५१), शीतल चन्द्रिका से रहित रात-सम (पृ. ३५१), अबला के भाल-सम (पृ. ३५२), आदर्श गृहस्थसम (पृ. ३६९), कुलीन-कन्या की मति-सी (पृ. ३९५), लवणभास्कर चूरण-सी (पृ. ४४३), सिंह-कटि-सी" (पृ. ४४३)।
धार्मिक, दार्शनिक अथवा सांस्कृतिक काव्य में संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली के प्रयोग की ओर ही लेखक सामान्यत: उन्मुख होता है । काव्य में तो और भी तत्समोन्मुखता होती है । परन्तु आचार्यजी ने 'मूकमाटी' के सहज प्रवाह में तत्सम के साथ देशज (लोक शब्द) का ही प्रयोग नहीं किया बल्कि अरबी-फारसी (उर्दू) शब्दावली का भी खूबसूरती से प्रयोग किया है। ऐसे प्रयोग अभिव्यक्ति को और भी प्रखर बनाते हैं। वास्तव में जिस समन्वय और सामंजस्य की चर्चा 'मूकमाटी' दार्शनिक धरातल पर करती है उसी समन्वय और सामंजस्य का परिचय वह शब्द चयन में भी देती है : “वरना (पृ. २२), आह (पृ. २८४), खून (पृ. १३१), खूब (पृ. १३१), क़ाबू (पृ. १३१), तेज़ाबी (पृ. १३४), साफ़-साफ़ (पृ. १४३), असर (पृ. १५१), गुज़र (पृ. १६२), नज़र (पृ. १६१), बेशक (पृ. १६२), मासूम (पृ. २३९), दुआ (पृ. २४१), जवाब (पृ. २४८), जानदार (पृ. २६७), असरदार (पृ. २६७), अफ़सोस (पृ. २९२), मिशाल (मिसाल) (पृ. ३६९)" आदि इसी तरह के शब्द हैं।
'मूकमाटी' अभिव्यक्ति की सहजता का एक और नया मार्ग अपनाती है। यह मार्ग भी काव्य सृजन की प्रक्रिया में बहुत कम दिखाई देता है। यह मार्ग है शब्दों के अर्थ को उनके संरचनात्मक घटकों द्वारा ही व्याख्यायित करने का प्रयास अथवा शब्दों का विलक्षण प्रयोग करते हुए अर्थ का उद्घाटन । पहले के उदाहरण स्वरूप : "स्व की याद ही/ स्व-दया है/विलोम-रूप से भी/यही अर्थ निकलता है/याद द'या' (पृ. ३८), और दूसरे का उदाहरण "रात्री /लम्बी होती जा रही है" (प.१८). को देखा जा सकता है। इस प्रकारके अन्य उदाहरण भी देखें:
"संयम की राह चलो/राही बनना ही तो/हीरा बनना है,/स्वयं राही शब्द ही/विलोम-रूप से कह रहा है-/राहीही "रा' (पृ. ५७), किसलय.../किस लय में (पृ. १४१), स्वप्न प्रायः निष्फल ही होते हैं। ...'स्व' यानी अपना/'' यानी पालन-संरक्षण/और/'न' यानी नहीं (पृ. २९५), 'नि' यानी निज में ही/'यति' यानी यतन-स्थिरता है/अपने में लीन होना ही नियति है"(पृ. ३४९)- इस प्रकार की व्याख्या-परिभाषा का विस्तृत भण्डार है 'मूकमाटी' में । 'नारी', 'स्त्री की महिमा 'मूकमाटी' में मुक्त कण्ठ से गाई है। ऐसे में 'नारी'(पृ. २०२), 'कुमारी'(पृ. २०४), 'स्त्री' (पृ. २०५), 'सुता' (पृ. २०५), 'दुहिता' (पृ. २०५) को उपरोक्त प्रकार से व्याख्यायितपरिभाषित करते हुए 'मूकमाटी' नई दिशादृष्टि का सूत्रपात करती है।
इस प्रकार के प्रयोग पाठक के लिए विलक्षण और नवीन तो हैं ही, पाठक को आचार्यजी की विश्लेषण क्षमता से भी परिचित कराते हैं। इसी क्षमता का प्रयोग अनुप्रास प्रयोग में मिलता है। इन्हें मूल काव्य से अलग कर निकालने का प्रयास तो हम कर रहे हैं, अन्यथा तो काव्य के भीतर ये इस तरह अन्तर्भुक्त हैं कि यह सोचा भी नहीं जा सकता कि इन्हें सायास निर्मित किया गया होगा। ये तो अभिव्यक्ति के सहज प्रवाह में अनायास प्रवाहित लगते हैं :
"बड़ का बीज वह (पृ. ७), छिलन के छेदों में जा (पृ. ३५), मृदुतम मरहम/बनी जा रही है (पृ. ३५),