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22 :: मूकमाटी-मीमांसा १४०), आँखें पलकती नहीं हैं (पृ. १६५), पीलित हुआ (पृ. ३५६), तुम माटी के उगाल हो (पृ. ३६५), प्रकटता गया (पृ. ४००), झगझगाहट” (पृ. ४७०) आदि प्रथम श्रेणी के प्रयोग हैं और लोंदा (पृ. ११३), अखरा (पृ. ८३), तार दो (पृ. १६१) । दूसरी श्रेणी के । इस प्रकार के नव-प्रयोग सन्दर्भ में बड़े ही प्रभावशाली बन पड़े हैं।
सूक्ति कथन 'मूकमाटी' की आत्मा है । इनकी संख्या भी काव्य में बहुत बड़ी है । वास्तव में ये सूक्तियाँ आचार्यजी के जीवन दर्शन को 'मूकमाटी' के कथा सन्दर्भ से आबद्ध कर ज्ञान और चिन्तन का आनन्दमय मार्ग पाठक के समक्ष प्रशस्त करती हैं। इतना ही नहीं, ये सूक्तियाँ कथानक के प्रति निर्णय देने, उन्हें प्रमाणित करने तथा कवि के गहरे मन्तव्यों को प्रस्फुटित करने में भी सहायक हैं। सभी का संग्रह यहाँ सम्भव नहीं है, इनका संकलन अलग से अवश्य होना चाहिए ताकि आचार्यजी का गरिमामय चिन्तन सूत्र रूप में लोगों तक पहुँच सके । कुछ सूक्तियाँ देखने मात्र से ही इस अनिवार्यता की पुष्टि हो जाएगी :
___“बहना ही जीवन है (पृ. २), जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है (पृ.८), असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है (पृ. ९), किसी कार्य को सम्पन्न करते समय/अनुकूलता की प्रतीक्षा करना/सही पुरुषार्थ नहीं है (पृ. १३), मीठे दही से ही नहीं,/खट्टे से भी/समुचित मन्थन हो/नवनीत का लाभ अवश्य होता है (पृ. १३-१४), दु:ख की वेदना में/जब न्यूनता आती है/दु:ख भी सुख-सा लगता है (पृ. १८), पीड़ा की अति ही/ पीड़ा की इति है/और/पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है (पृ. ३३), वासना का विलास/मोह है/दया का विकास/ मोक्ष है (पृ. ३८), मन की छाँव में ही/मान पनपता है (पृ. ९७), सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/...जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव-सम्पादन हो/सही साहित्य वही है (पृ. १११), ...जो जीव/अपनी जीभ जीतता है/दु:ख रीतता है उसी का (पृ. ११६), आस्थावाली सक्रियता ही/निष्ठा कहलाती है (पृ. १२०), दाता के कई गुण होते हैं उनमें एक गुण विवेक भी होता है (पृ. ३१७), 'ध्येय यदि चंचल होगा, तो/कुशल ध्याता का शान्त मन भी/चंचल हो उठेगा ही'(पृ. ३६९), गुणों में गुण कृतज्ञता है (पृ. ४५४), घृत का दुग्ध के रूप में/लौट आना सम्भव है क्या ?" (पृ. ४८७)।।
___ 'मूकमाटी' की ये सूक्तियाँ कथ्य में ही लिपटी हुई हैं। इसमें सन्देह नहीं कि इन सूक्तियों में भारतीय धर्म और संस्कृति को अपने भीतर पचा कर ही आचार्यजी ने सहजता से हमारे समक्ष रख दिया है । इनके द्वारा धर्म के दोनों रूप-जीवन शुद्धि और बाह्य व्यवहार हमारे भीतर उघड़ते चलते हैं । इन सूक्तियों में क्षमा, नम्रता, सत्य, संघर्ष आदि जीवनगत गुण भी पिरोए हुए हैं और आस्था, अर्चन, गुरु सत्कार, इन्द्रिय दमन, नैतिकता जैसे बाह्य व्यवहार से सम्बन्धित गुण भी।
सशक्त और सहज अभिव्यक्ति के लिए उपमान और उपमेय का गठन अति सार्थक साधन है । इससे भाव, अनुभूति, विचार जैसे सशरीर पाठक के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। 'मूकमाटी' में इनका हटकर प्रयोग है अर्थात् इसके पहले इस प्रकार की उपमेयता सर्जनात्मक लेखन में दिखाई नहीं पड़ी। इस धरातल पर 'मूकमाटी' 'नई अभिव्यक्ति की खोज' के महती सृजन कर्त्तव्य को भी निभाती परिलक्षित होती है। इन सार्थक प्रयोगों को देखें और स्वयं निर्णय करें: “खसखस के दाने-सा (पृ. ७), भाई को बहन-सी (पृ. १९), नवविवाहिता तनूदरा/घूघट में से झाँकती-सी (पृ. ३०),...खरा बने कंचन-सा ! (पृ. ५६), दादी, दीदी-सी (पृ. ६२), कूप-मण्डूक-सी (पृ. ६७), बालटी वह यानसम (पृ. ७७), फूल-दलों-सी (पृ. ९४), चकित चोर-सा ! (पृ. ९५), मुक्ता-मोती-सी (पृ. ११०) सुरभि से विरहित पुष्प-सम (पृ. १११), बाल-भानु की भाँति (पृ. ११७), चतुरी चकवी-सम (पृ. १२६), चन्दन तरु-लिपटी नागिन-सी (पृ. १३०), ज्वालामुखी-सम (पृ. १३१), बबूल के ठूठ की भाँति (पृ.१३१),