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________________ 16 :: मूकमाटी-मीमांसा दम्भ से मुक्त,/...जीवन बने मंगलमय' (पृ. ४७८) की कामना करता । 'कामायनी' के समापन छन्द में यही स्थिति है : “समरस थे जड़ या चेतन/सुन्दर साकार बना था/चेतनता एक विलसती/आनन्द अखण्ड घना था।" 'मूकमाटी' भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा का काव्य है और आचार्य विद्यासागर पश्चिम की भोगवादी दृष्टि का स्पष्ट विरोध करते हैं, इसीलिए मृत्तिका कुम्भ को नेतृत्व प्रदान किया गया है। विद्यासागरजी के शब्द हैं : "पश्चिमी सभ्यता/आक्रमण की निषेधिका नहीं है/अपितु ! आक्रमण-शीला गरीयसी है/जिसकी आँखों में विनाश की लीला विभीषिका/घूरती रहती है सदा सदोदिता/और महामना जिस ओर/अभिनिष्क्रमण कर गये/सब कुछ तज कर, वन गये नग्न, अपने में मग्न बन गये/उसी ओर"/उन्हीं की अनुक्रम-निर्देशिका भारतीय संस्कृति है/सुख-शान्ति की प्रवेशिका है।" (पृ. १०२) भारतीय संस्कृति के प्रति यह राग-भाव 'मूकमाटी' के पूरे विन्यास में देखा जा सकता है, चिन्तन से लेकर प्रतीक योजना, बिम्ब विधान और शब्द-शिल्प तक । कविता जब उठान भरती है तो कवि प्रकृति का भरपूर उपयोग करना चाहता है : "धरती की धवलिम कीर्ति वह/चन्द्रमा की चन्द्रिका को लजाती-सी दशों दिशाओं को चीरती हुई/और बढ़ती जा रही है । सीमातीत शून्याकाश में।" (पृ. २२२) शूल-फूल, धरती-माटी, कुम्भ-नदी, कुम्भ-कलश आदि के वार्तालापों में दार्शनिक प्रसंगों के बावजूद काव्य निष्पत्ति इसीलिए हो सकी, क्योंकि कवि ने सार्थक बिम्बों की खोज का प्रयत्न किया है, यद्यपि कविता का ढाँचा गद्य का समीपी है। मृत्तिका कुम्भ पात्र का स्वागत-सत्कार होता है और स्वर्ण कलश अपमानित महसूस करता है : “स्वर्णकलश की मुख-गुफा से/आक्रोश-भरी शब्दावली फूटती है/साक्षात् ज्वालामुखी का रूप धरती-सी'' (पृ. ३५६)। आचार्य विद्यासागर उन प्रसंगों में अपनी सर्वोत्तम उठान में हैं जहाँ प्रकृति बिम्बों के माध्यम से चिन्तन संकेत हैं, जैसे महाकाव्य के आरम्भ में ही : “लज्जा के घूघट में/डूबती-सी कुमुदिनी/प्रभाकर के कर-छुवन से बचना चाहती है वह;/अपनी पराग को-/सराग-मुद्रा को पाँखुरियों की ओट देती है।" (पृ. २) अथवा, उन प्रसंगों में जब आस्तिकी वृत्ति का प्रकाशन होता है, जैसे काव्य के अन्त में : "सादर आकर प्रदक्षिणा के साथ/सबने प्रणाम किया पूज्य-पाद के पद-पंकजों में,/पादाभिषेक हुआ,/पादोदक सर पर लगाया। फिर,/चातक की भाँति/गुरु-कृपा की प्रतीक्षा में सब ।” (पृ. ४८४) काव्य ही शब्दराशि का सांस्कृतिक धरातल है, यद्यपि उसमें अन्य सहज-सरल शब्द भी अन्तर्भुक्त हो गए हैं। किसी महान् लक्ष्य की ओर अग्रसर समाज का दृश्य है जिसमें एक नए दृष्टान्त का प्रवेश कराया गया है, जिससे कवि
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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