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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 15 'माटी की महिमा,' जिसे कवि शिवमंगलसिंह 'सुमन' ने अपनी प्रसिद्ध कविता में प्रतिपादित किया है : " मिट्टी में घर है, संयम है, होनी-अनहोनी कह जाए हँसकर हालाहल पी जाए, छाती पर सब कुछ सह जाए यों तो ताशों के महलों-सी, मिट्टी की वैभव बस्ती क्या भूकम्प उठे तो ढह जाए, बूड़ा आ जाए, बह जाए लेकिन मानव का फूल खिला, सबसे पाकर वाणी का वर निधि का विधान लुट गया, स्वर्ग - अपवर्ग हो गए न्यौछावर कवि मिट जाता लेकिन उसका उच्छ्वास अमर हो जाता है मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है ।" आचार्य विद्यासागर ने कुम्भ की अग्नि परीक्षा का क्रम समाप्त होते ही महासेठ का प्रवेश कराया है, जो आधुनिक अर्थवाद का प्रतीक है। दो विपरीत जीवन दृष्टियाँ - एक ओर तपः पूत कुम्भ और कुम्भकार शिल्पी, जिसे कवि ने ‘अनल्प श्रम, दृढ़ संकल्प, सत् - साधना - संस्कार का फल' (पृ. ३०५) बताया है और जो कुम्भ को नई छवि देता है, शिल्पन कौशल से । धनिक विषयान्ध, मदाधीन महासेठ का हृदय परिवर्तन माटी - कुम्भ के माध्यम से दिखाना आचार्य विद्यासागर का अद्भुत कवि कौशल है और इसे निष्पादित करने के लिए कुम्भ की वाणी का सार्थक उपयोग किया गया है । कुम्भ से किसी सन्त की कविता सुनकर महासेठ की आँखें खुल जाती हैं। वह संयत होता है, भ्रांतियाँ समाप्त होती हैं। यद्यपि यहाँ पूजन-अनुष्ठान की भी पर्याप्त चर्चा है, पर कवि का मूल आशय अर्थवाद का हृदयपरिवर्तन है, महासेठ के माध्यम से । इसी अवसर पर गुरु द्वारा सेठ की शंकाओं का समाधान है, दार्शनिक शब्दावली में और यहाँ कवि ने कुम्भ की भाव-भाषा का उपयोग भी किया है : "कुम्भ के विमल-दर्पण में / सन्त का अवतार हुआ है” (पृ. ३५४) । 'मूकमाटी' में आचार्य विद्यासागर ने जिस शिल्प का प्रयोग किया है, वह कई दृष्टियों से अभिनव है। बिना आख्यान के सहारे रचा गया काव्य अनाम पात्र चुनता है और प्रकृति की इकाइयों को पात्रत्व देता है । विद्यासागरजी की कला की परिभाषा इस सन्दर्भ में विचारणीय है : "कोई भी कला हो/कला मात्र से जीवन में / सुख-शान्ति-सम्पन्नता आती है” (पृ. ३९६) । काव्य में पृथ्वी, माटी, कुम्भ, लकड़ी, नदी, सर्प, स्वर्णकलश आदि सब पात्रों के रूप में बोलते हैं। कवि ने इनके माध्यम से विभिन्न जीवनदृष्टियों का बोध कराया है और काव्य में नाटक तत्त्व का ऐसा कौ अपनाया गया है जैसे कवि के समक्ष पाठक श्रोता के रूप में उपस्थित हो । वार्तालाप की यह शैली दार्शनिक प्रसंगों को बहुत नीरस नहीं हो जाने देती और यह बात विशेष रूप से अन्तिम खण्ड में देखी जा सकती है जहाँ कई बार शास्त्रीय दार्शनिक चर्चा है, जिसमें जैन धर्म के शब्द भी आए हैं। विद्यासागरजी 'सरगम' की मौलिक व्याख्या कर सकते हैं, और श्रमण की भी : “ज्ञान के साथ साम्य भी अनिवार्य है / श्रमण का शृंगार ही / समता-साम्य है" (पृ.३३०) । काव्य लगभग अन्त में नदी का वक्तव्य विशेष रूप से विचारणीय है जिससे 'बहता पानी, रमता जोगी' का दर्शन प्रतिपादित किया गया है, पर जिसे ललकारता है वही कुम्भ, जो काव्य का महानायक जैसा है: “कुम्भ के आत्म-विश्वास से / साहस-पूर्ण जीवन से/नदी को बड़ी प्रेरणा मिल गई / नदी की व्यग्रता प्रायः अस्त हुई / समर्पण-भाव से भर आई वह !" (पृ. ४५४-४५५) । इस महाकाव्य में कुम्भ की भूमिका एक महानायक की है - माटी से उपजा, कुम्भकार शिल्पी द्वारा निर्मित पर स्वयं सम्पूर्ण भी, जो काव्य के अन्त में नेतृत्व की भूमिका में है : "सबसे आगे कुम्भ है / मान
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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