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14 :: मूकमाटी-मीमांसा
कितना उद्विग्न है और कविता वास्तविकता तथा यथार्थ से आदर्श की ओर प्रयाण का प्रयत्न करती है। यहीं स्वप्नद्रष्टा कवि साधारण व्यक्तियों से अधिक उच्चतर धरातल पर प्रतिष्ठित होता है । 'मूकमाटी' में बबूल की लकड़ी के माध्यम से समय की पीड़ा व्यक्त हई है:
"प्राय: अपराधी-जन बच जाते/निरपराध ही पिट जाते,/और उन्हें पीटते-पीटते सदा टूटती हम ।/इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ?
यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है/या/ मनमाना 'तन्त्र' है।" (पृ. २७१) ___ विरागी वृत्ति ने नारी को आदर देते हुए भारतीय नारीत्व को जो गौरव दिया है, वह नितान्त सराहनीय है । यहाँ नारी के सभी रूपों का संकेत किया गया है : स्त्री, मातृ, सुता, दुहिता, अबला, कुमारी आदि । कवि ने नारी को भारतीय संस्कृति का गरिमामय आधार माना है, और अपने विवेचन को पर्याप्त विस्तार से प्रस्तुत किया है :
"यह धरा सम्पदा-सम्पन्ना/तब तक रहेगी/जब तक यहाँ 'कुमारी' रहेगी। यही कारण है कि/सन्तों ने इन्हें/प्राथमिक मंगल माना है
लौकिक सब मंगलों में !" (पृ.२०४) नारी के प्रति यह मंगल दृष्टि उसी वीतरागी में सम्भव है जो गहन मानवीय संवेदन से परिचालित हो ।
वक्तव्य भर दे देना, पूर्ण कविता का लक्षण नहीं है । उसे समापन तक पहुँचाना कविता का गन्तव्य होना चाहिए। सन्तों ने अपने समय की विभीषिका पर तीखे प्रहार किए हैं, एक प्रकार से वह सात्त्विक आक्रोश का स्वर है, पर इस अर्थ में वह सार्थक है कि विकल्प भी चाहता है। 'मूकमाटी' में अनेक उद्धरणीय पंक्तियाँ हैं जिसे हम किसी सफल कविता का गुण भी मानते हैं। कई बार सामान्य जन सन्तवाणी को उद्धत करते हैं, यद्यपि वे उसके रचयिता से परिचित नहीं होते । इस प्रकार कविता वाचिक परम्परा से जुड़ जाती है, पुस्तक से बाहर निकल कर । अग्नि-परीक्षा के बिना, किसी की मुक्ति नहीं (पृ. २७५), सदाशय, सदाचार अग्नि की ऊष्मा है (पृ. २७६), प्रकाश का लक्षण सबको प्रकाशित करना (पृ. ३४२), जीवन संगीत में आनन्द की प्राप्ति (पृ. १४४), परिश्रमी ऋषि-कृषक (पृ. २२२), धन-संग्रह नहीं, जन-संग्रह करो (पृ. ४६७), ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है (पृ. ६४), धर्म का झण्डा भी डण्डा बन जाता है (पृ. ७३) आदि असंख्य पंक्तियाँ उद्धत की जा सकती हैं। कहीं-कहीं सात्त्विक आक्रोश व्यंग्य के रूप में व्यक्त होता है : "आस्था कहाँ है समाजवाद में तुम्हारी ?/सबसे आगे मैं/समाज बाद में" (पृ. ४६१) । कवि की परिभाषा है : “प्रशस्त आचार-विचार वालों का/जीवन ही समाजवाद है" (पृ. ४६१) । कवि ने कई बार 'समता' शब्द का प्रयोग किया है और इस सम्बन्ध में उसकी अपनी व्याख्या है : “अमीरों की नहीं/गरीबों की बात है;/कोठी की नहीं/ कुटिया की बात है" (पृ. ३२)। ये वक्तव्य केवल उद्धरण के उपयोग में आकर रह जाते, पर आचार्य विद्यासागर ने अपने चिन्तन को समापन तक पहुँचाया है। इसलिए अन्तिम खण्ड ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' का आकार बड़ा हो गया । यहाँ कवि ने अपने तत्त्व चिन्तन को अधिक ग्राह्य बनाने के लिए महासेठ चरित्र का सहारा लिया है । खण्ड के आरम्भ में अग्नि को समर्पित कुम्भ के व्यक्तित्व का निखार है, जिसे कवि ने 'कुम्भ की अग्नि-परीक्षा' कहा है । कुम्भ का रूपान्तरण होता है : “कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है मुक्तात्मा-सी/तैरते-तैरते पा लिया हो/अपार भव-सागर का पार !'(पृ. २९८)। फिर स्थितप्रज्ञ का चित्रण : "ख्याति-कीर्ति-लाभ पर/कभी तरसते नहीं''(पृ. ३०१) । तप:पूत कुम्भ उच्चतर मानव मूल्यों का प्रतीक है।
समापन अंश में अग्नि-परीक्षित कुम्भ, कुम्भकार शिल्पी उच्चतम धरातल पा जाते है, पर सब में सर्वोपरि है