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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 13 'एकाकी' रहने की भावना साधक के लिए अनिवार्य है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'द्वादशानुप्रेक्षा' (गाथा २०) में कहा भी है कि संयमी पुरुष सदैव यह भावना रखता है कि वह एकाकी है, सभी प्रकार के सम्बन्धों और बन्धनों से मुक्त, तटस्थ, ममत्व रहित और शुद्ध है । यह शुद्ध एकत्व की अनुभूति ही साधक के उत्थान के लिए अनिवार्य है : "एक्को हं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्षणो। सुद्धयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ संजदो ॥" 'श्रीमद् भागवत' के एकादश स्कन्ध के अवधूतोपाख्यान में भी दत्तात्रेयजी कुमारी के आख्यान के माध्यम से योगी के एकाकी भ्रमण का उपदेश करते हैं : "एक एव चरेत् तस्मात् कुमार्या इव कंकणः ।" (९/१०) अत: दोनों परम्पराओं की अवधूतचर्या में कहीं विरोध दिखाई ही नहीं पड़ता। मृण्मय को चिन्मय बना देना जीवन और साहित्य का लक्ष्य है । कवि ने कहा है : “हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है और/सहित का भाव ही/साहित्य बाना है, अर्थ यह हुआ कि/जिसके अवलोकन से/सुख का समुद्भव-सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड !" (पृ. १११) जीवन का लक्ष्य भी पतन से ऊपर उठकर उत्थान की ओर जाना, जड़ता से गतिशीलता की ओर जाना, बन्धनों से मुक्ति की ओर जाना तथा संग से असंग की ओर जाना है : "जल को जड़त्व से मुक्त कर/मुक्ता-फल बनाना, पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है।" (पृ. १९३) वस्तुत: चारित्र, ज्ञान, तप और क्षमा संसार रूपी सागर में तिरती हुई साधक रूपी सीपियों को ऊर्ध्वमुखी बनाते हैं। हर जलकण अनुभूति जैसा होता है, अत: अनुभूति रूपी जलकण विविध रूपों में मोतियों की तरह साधकों के हृदय में छिपे रहते हैं। सीपी भरकर तल में चली जाती है, सिद्धि पाकर साधक भी 'स्व' में खो जाते हैं । उन अनुभूतियों रूपी मोतियों को शब्दों के गोताखोर ढूँढ लाते हैं और जब शब्द व्यक्त हो जाते हैं तो पाठकों के लिए मानों लुट जाते हैं। साहित्य और जीवन-साधना की यही प्रक्रिया है : "मुक्तमुखी हो, ऊर्ध्वमुखी हो/सागर की असीम छाती पर अनगिनत शुक्तियाँ तैरती रहती हैं/जल-कणों की प्रतीक्षा में। एक-दो बूंदें मुख में गिरते ही/तत्काल बन्द-मुखी बना कर सागर उन्हें डुबोता है,/...वहाँ पर कोई गोताखोर पहुँचता हो सम्पदा पुनः धरा पर लाने हेतु/वह स्वयं ही लुट जाता है।" (पृ. १९३-९४)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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