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12 :: मूकमाटी-मीमांसा
अवश्य मिलेगी/मगर/मार्ग में नहीं, मंज़िल पर !" (पृ. ४८६-४८८) ___ 'मूकमाटी' का सृजन उदात्त चेतना के निर्माण के प्रयोजन से हुआ है । आधुनिक भोगवादी सभ्यता के पंजे में जकड़ी हुई मानवता का त्राण आदि कवि का लक्ष्य है । महत् उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिखी जाने के कारण कवि की यह रचना महान् है । उद्देश्यनिष्ठता के कारण ही यह महाकाव्य है, भले ही परम्परित महाकाव्यों के ढाँचे में इसे उपन्यस्त करने में कठिनाइयाँ हों। आत्म-साधना का साहित्य समूची सन्तधारा और भक्तिधारा में उपलब्ध होता है पर श्रमणधारा के मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन के लिए आधुनिक भाषा, भंगिमा और रागात्मक तेवर से संवलित यह पहली कृति है जो मिट्टी, कुम्भ और कुम्भकार के व्याज से एक ओर ईश्वर के सृष्टिकर्ता होने के सिद्धान्त का खण्डन करती है तो दूसरी ओर प्रकृति, जीव और ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डालती है। कवि का यह भी कहना है कि विजितमना योगी आत्म-साधना द्वारा स्वयं में निहित ईश्वरीयशक्ति का उद्घाटन कर अविनश्वर सुख प्राप्त कर सकता है । संसारी ईश्वर बन सकता है पर ईश्वरत्व पाकर वह संसारी नहीं हो सकता :
"दुग्ध का विकास होता है/फिर अन्त में/घृत का विलास होता है,
किन्तु/घृत का दुग्ध के रूप में/लौट आना सम्भव है क्या ?" (पृ. ४८७) उपनिषद् भी निगूढ आत्मशक्ति के ध्यान, योग द्वारा दर्शन और जागरण की बात करते हैं। श्वेताश्वतर' इसका प्रमाण है । अत: मानव की अनन्त सम्भावनाओं को देखते हुए मानवीयशक्ति की प्रतिष्ठा की बात करना परम्परा सम्मत है और इसी कारण न हि मानुषात् श्रेष्ठतरम्' की धारणा बलवती होती है। कवि ने काव्य-सृजन का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए मानस तरंग' (पृ. XXIV) में लिखा है : “जिसने शुद्ध-सात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है; जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है और जिसका नामकरण हुआ है 'मूकमाटी'।" तात्पर्य यह कि जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर ही इस काव्य का निर्माण हुआ है । माटी, कुम्भ और कुम्भकार के प्रतीकों के माध्यम से राग-वैराग्य, हर्ष-विषाद, भोग-त्याग, पुण्य-पाप, बन्धन-मोक्ष, अव्यक्त-व्यक्त, प्रेय-श्रेय तथा मंगल-अमंगल का ऐसा उदात्त काव्यात्मक निरूपण हिन्दी के पूर्ववर्ती अन्यापदेश काव्यों में विरल ही मिलेगा । कवि अपने काव्य का लक्ष्य ऐसे 'महामानव' की प्रतिष्ठा को बनाता है जो घट या जीव को सहारा देकर आत्मा के अनन्त अनुभव सिन्धु में तैरने के लिए छोड़ देता है :
"जो मोह से मुक्त हो जीते हैं/राग-रोष से रीते हैं। जनम-मरण-जरा-जीर्णता/जिन्हें छू नहीं सकते अब... सप्त-भयों से मुक्त, अभय-निधान वे,/निद्रा-तन्द्रा जिन्हें घेरती नहीं, ...शोक से शून्य, सदा अशोक हैं...
जिनके पास संग है न संघ/जो एकाकी हैं।" (पृ. ३२६-३२७) 'नियमसार' (गाथा १७७) में भी कहा गया है :
“जाइ-जर-मरणरहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं । णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेयं ॥"