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'मूकमाटी' : अध्यात्मबोध काव्य
डॉ. विष्णु दत्त राकेश आधुनिक हिन्दी काव्यधारा में दो अध्यात्मबोध काव्यों ने विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया है- एक पण्डित सुमित्रानन्दन पन्त का 'सत्यकाम' है और दूसरा मुनिवर्य आचार्य विद्यासागर का 'मूकमाटी'। यह नवें दशक की उल्लेखनीय रचना है। भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन जिन दो वैदिक और श्रमणधाराओं से विकसित हुआ है, उसके परिपार्श्व में ही क्रमश: 'सत्यकाम' और 'मूकमाटी' का सृजन हुआ है । 'सत्यकाम' में वैदिक-औपनिषदिक चिन्तन अन्तर्हित है तो 'मूकमाटी' में श्रमण-चिन्तन और मुनि-तत्त्वमीमांसा प्रतिबिम्बित हुई है। दोनों कवि आत्मबोध और जीवनबोध में कोई पार्थक्य स्वीकार करने को तैयार नहीं। परम सत्य सापेक्ष तथा निरपेक्ष दोनों रूपों में प्राप्त होता है। 'सत्यकाम' में पन्त जी का कथन है:
"आत्मबोध के लिए अपेक्षित है जीवन का अनुभव भी साथ ही ! निखिल जीवन आत्मा से आलिंगित, परिवृत है, उसके बाहर कुछ भी नहीं,-त्याज्य हम समझें जिसको ! ब्रह्मज्ञान का अर्थ समग्र ज्ञान होता है, केवल छूछा। वह निरपेक्ष प्रकाश भर नहीं,- पूर्ण सत्य है ! जग में जो कुछ भी जड़ चेतन-व्याप्त ब्रह्म से ! परम सत्य अव्यक्त, परात्पर-जो लोकोत्तर सृष्टि चक्र में अभिव्यक्त होता अनन्त तक!
वही सृजन रत रह सकता जो आत्ममुक्त है !" (पृ. २५-२६) आचार्य विद्यासागरजी ऊर्ध्वमुखी अवस्था के दर्शन के लिए अधोमुखता की निन्दा नहीं, अपेक्षा करते हैं। घाटी और शिखर दो अनिवार्य स्थितियाँ हैं। घाटी से शिखर के दर्शन होते हैं और शिखर से घाटी के । फिर क्या उत्थान है और क्या पतन ?
"पर्वत की तलहटी से भी/हम देखते हैं कि/उत्तुंग शिखर का दर्शन होता है,/परन्तु/चरणों का प्रयोग किये बिना
शिखर का स्पर्शन/सम्भव नहीं है !" (पृ.१०) साधना में मंज़िल का महत्त्व है, मार्ग कुछ भी हो सकता है । मार्ग और मंज़िल, सत् और असत्, सुख और दुःख, ग्राह्य या त्याज्य सभी सापेक्ष हैं। उनका कोई एक परिदृश्य अपूर्ण हो सकता है पर समग्र रूप में जीवनबोध आत्मसत्य के स्पर्श के कारण आत्मरूप ही है । इस भावदशा में पहुँचकर साधक के लिए कुछ भी ग्राह्य या कुछ भी त्याज्य नहीं होता:
"बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे/प्राप्त होने के बाद, यहाँ/संसार में आना कैसे सम्भव है/...विश्वास को अनुभूति मिलेगी