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10 :: मूकमाटी-मीमांसा
इसके विपरीत पृथ्वी का यह मातृत्व जिसमें केवल राग ही नहीं, चेतना भी है, गम्भीर उत्कर्ष भी है, सौन्दर्य की रक्ताभ भी है और एक विराग की अनासक्ति भी। बताइए पृथ्वी में क्या नहीं है यानी माँ में क्या नहीं है ?
"जिस की आँखें/और सरल-/और तरल हो आ रही हैं,/जिनमें हृदयवती चेतना का/दर्शन हो रहा है,/जिसके/सल-छलों से शून्य विशाल भाल पर/गुरु-गम्भीरता का/उत्कर्षण हो रहा है, जिसके/दोनों गालों पर/गुलाब की आभा ले/हर्ष के संवर्धन से दृग-बिन्दुओं का अविरल/वर्षण हो रहा है,/विरह-रिक्तता, अभाव
अलगाव-भाव का भी/शनैः शनै:/अपकर्षण हो रहा है ।” (पृ. ६) इन थोड़े से उद्धरणों से प्रतीत हो सकता है- आचार्य विद्यासागरजी के भीतर का काव्यस्रोत, परिवर्तन की व्याकुलता, जीवन-मूल्यों की स्थापना और उन्हें जन-जन तक पहुँचाने की उत्कटता । उनके भीतर आग है और नीर की शीतलता भी, दृष्टि भी है और दृश्य भी, अनुभूति भी है और संवेदना भी । दार्शनिक चेतना, दैनन्दिन व्याख्यान और उपदेश की बाध्यता, सूक्तिता और भाषा तथा कविता के सम्प्रेषण की सीमाओं का भी मैंने जिक्र किया है। इसके बावजूद यह रचना दर्शन, जीवन और काव्य का एक सम्मिलित अवदान है, क्योंकि यह जिस दिशा से आया है, जिस साधक की ओर से आया है, जिस प्रयोजन से आया है और जितनी उत्कटता से आया है वह निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है।
पृ. ३४३ कायोत्सर्गका विसर्जक----
संयमोपकरण दिया 'मयए-पंखोंका,जो मृदुल कोमललपुभूल है।