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________________ मूकमाटी-मीमांसा ::9 के स्तर पर कम, और विचार के स्तर पर अधिक ग्राह्य बनाते हैं क्योंकि इसका सृजक अपनी अनुभूति के स्थानान्तरण को प्रक्रिया में कम और परिणति में अधिक ढालता है। जबकि प्रक्रिया में उतरने पर वह कविता के अधिक निकट पहुँच पाता है । उदाहरण के लिए 'कुम्भक प्राणायाम' को वह 'कुम्भक प्राणायाम' या किसी पर्यायवाची शब्द के माध्यम से पहुँचाता तो यह चीज़ किसी व्यावहारिक साधक तक ही पहुँच पाती और तब भी वह प्राय: जानकारी या ज्ञान के स्तर पर । परन्तु यहाँ इसे प्रक्रिया में देखिए : "लो ! कुम्भक प्राणायाम/अपने आप घटित हुआ।/होठों को चबाती-सी मुद्रा, दोनों बाहुओं में/नसों का जाल वह/तनाव पकड़ रहा है, त्वचा में उभार-सा आया है/पर,/गाँठ खुल नहीं रही है/अँगूठों का बल . घट गया है।/दोनों तर्जनी/लगभग शून्य होने को हैं,/और नाखून खूनदार हो उठे हैं/पर गाँठ खुल नहीं रही है।" (पृ. ५९) आप चाहे जिस स्थिति में हों, इन पंक्तियों को पढ़ते समय क्या मानसिक रूप से 'कुम्भक' नहीं कर रहे होते हैं ? स्वानुभव को सम्प्रेषित करने की यह कितनी महत्त्वपूर्ण काव्य-प्रक्रिया है । इसे यहाँ देख सकते हैं और यह भी कि कवि जब किसी विशिष्ट अनुभूति से स्वयं गुज़रा हो तो उसकी अभिव्यक्ति में कैसी जीवन्तता आ जाती है । देखकर अनुभव करना और अनुभव करते हुए देखना, एक संवेदनशील व्यक्ति के भीतर सर्वथा भिन्न न होते हुए भी रचनात्मक स्तर पर कुछ न कुछ भिन्न जरूर होता है । “समाजवाद समाजवाद चिल्लाने मात्र से/समाजवादी नहीं बनोगे" (पृ. ४६१)यह फटकार खरी भी लगती है और सच भी, क्योंकि व्यवहार और आचरण में उतारे बिना वे कोरे शब्द हैं, उनका कोई व्यावहारिक मूल्य नहीं है। परन्तु यह बात भीतर तक वैसी अनुभव नहीं होती जैसी यह व्याकुलता : "कितनी तपन है यह !/बाहर और भीतर/ज्वालामुखी हवायें ये! जल-सी गई मेरी/काया चाहती है/स्पर्श में बदलाहट, घाम नहीं अब,/"धाम मिले !" (पृ. १४०) अनुभूति से शब्द में केन्द्रित हो जाने के कारण 'घाम' की जगह ‘धाम' या आगे 'झाग' की जगह 'पाग' और 'राग' की जगह पराग' होने से इनमें भी केवल शब्द-क्रीड़ा नहीं रही, एक हद तक काव्यात्मकता आ गई है। कविता के दो उदाहरण देकर यह लेख समाप्त करूँगा । एक समय की विकरालता का बिम्ब है और दूसरा पृथ्वी की उदार स्निग्धता का: "भीतर से बाहर, बाहर से भीतर/एक साथ, सात-सात हाथ के सात-सात हाथी आ-जा सकते/इतना बड़ा गुफा-सम महासत्ता का महाभयानक/मुख खुला है/जिसकी दाढ़-जबाड़ में सिन्दूरी आँखों वाला भय/बार-बार घूर रहा है बाहर, जिसके मुख से अध-निकली लोहित रसना/लटक रही है/और जिससे टपक रही है लार/लाल-लाल लहू की बूंदें-सी।" (पृ. १३६) यहाँ रौद्ररूप को आकृत किया गया है जिसमें 'सिन्दूरी आँखों वाला भय' महासत्ता की दाढ़-जबाड़ में समाया है। मानों आकृति के बाद उस परिणति की ओर भी संकेत कर दिया गया है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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