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8 :: मूकमाटी-मीमांसा
अपभ्रंश के जैन काव्यों की एक विशेषता रही है - अपार करुणा । यह करुणा वहीं सार्थक हो सकती है जहाँ इसकी आवश्यकता है। इसलिए दुःखी, पीड़ित, शोषित, दलित ही इस करुणा के केन्द्र में होते हैं। एक प्राचीन जैन कवि ने अपने समय को देखकर यहाँ तक लिखा था कि “चन्दन के मोल ईंधन बिक रहा है, रोटी के खातिर लोग अपनी बेटीबेटे बेच रहे हैं"- करुणा की ऐसी आर्द्रवाणी, 'मूकमाटी' में भी देखी जा सकती है, जहाँ 'प्रकृति माँ की आँखों में, रोती हुई करुणा' है । यह करुणा क्यों रोती है इसलिए कि संसार में कलह है, धरती के बेटे एक दूसरे को मारने-मिटाने में लगे हैं।
यह भी एक विचित्र बात है कि जैन धर्म आमतौर पर व्यापारियों और धनिकों का धर्म है, परन्तु जैन धर्म के आचार्य सब से ज्यादा धन और धनिकों पर, उनकी एषणाओं पर ही प्रहार करते हैं। इससे प्रकट होता है कि वे निर्भय होकर इस समाज को वह दृष्टि देते हैं जो उसके और मानवता के लिए आवश्यक है।
स्वर्ण कलश को माटी के कलश की माटी लताड़ते हुए कहती है कि तुम परतन्त्र जीवन की आधारशिला हो 'पूँजीवाद के अभेद्य दुर्ग हो, 'अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला हो ।' शायद ये तीन पंक्तियाँ 'अर्थ' की समस्त सीमाओं, परिणतियों और प्रदूषणों पर तीखी टिप्पणी हैं। कवि यहाँ तक कहता है :
"परमार्थ तुलता नहीं कभी/अर्थ की तुला में/अर्थ को तुला बनाना अर्थशास्त्र का अर्थ ही नहीं जानना है/और/सभी अनर्थों के गर्त में
युग को ढकेलना है/अर्थशास्त्री को क्या ज्ञात है यह अर्थ ?" (पृ. १४२) आज जब अर्थ की तुला पर व्यक्ति ही नहीं, देश के देश तुल रहे हैं, आर्थिक उदारीकरण के विश्व-व्यापार में-तब ऐसे अर्थशास्त्र का अर्थ शायद जीवन्मुक्त सन्त से ही जानना होगा जो अर्थ के बन्धन को, उसकी सीमाओं और उससे उत्पन्न विभीषिकाओं के प्रति सचेत करता है।
हमारे संसार में जहाँ परजीवियों के ठाठ हैं, श्रमिक को नीची जगह है, वहाँ कवि का यह कथन श्रम की सार्थकता को ही नहीं महत्ता और मूल्य को भी प्रकट करता है :
"परिश्रम के बिना तुम/नवनीत का गोला निगलो भले ही,
कभी पचेगा नहीं वह/प्रत्युत, जीवन को खतरा है !" (पृ. २१२) अन्तिम पंक्ति भले कविता को कमज़ोर करती हो, परन्तु पचाना' यहाँ शारीरिक स्तर पर ही नहीं है। 'नवनीत' की कोमलता की ओर भी हमारा ध्यान जाना चाहिए। पत्थर नहीं, नवनीत का गोला खाया जा रहा है। कहा यह गया है कि ऐसी सुकुमारता भी नहीं पचेगी अगर परिश्रम न होगा। परिश्रम के बिना सारे सुख-विलास अकारथ और अपाच्य हो जाएँगे। यानी जो अर्जित किया गया है वह निरर्थक हो जाएगा - यहाँ तक कि विपरीत भी।
पर-कामिनी के प्रति आसक्ति, भय, असत्य, हिंसा आदि पर तो सन्तवाणी ने सदैव प्रहार किया है। वह यहाँ भी है, परन्तु 'मूकमाटी' का कवि न्याय प्रक्रिया की लालफीताशाही पर भी हमला कर रहा है :
"आशातीत विलम्ब के कारण/अन्याय न्याय-सा नहीं
न्याय अन्याय-सा लगता है।" (पृ. २७२) विलम्ब न्याय की समूची सत्ता को ही व्यर्थ बना रहा है।
जैसा मैने कहा है कि सूत्रपरकता, सूक्ति और उपदेश काव्य मार्ग की बाधा हैं और वे इस काव्य को अनुभूति