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________________ मूकमाटी-मीमांसा ::7 तामसता कैसे भीतरी कायरता बनती है यह काय-रता' के उस दर्शन की ओर ले जाती है जिसकी परिणति कायरता में होती है। यानी यह एक तत्त्वबोध है। ___ 'मूकमाटी' में ऐसे अनेक अंश हैं जो सूत्रमत्ता, सूक्तिपरकता लिए हुए हैं और मेरी समझ से यह तत्त्व मार्ग के अधिक निकट पड़ती है, क्योंकि यहाँ एक सिद्ध की साधना-सत्ता ही शब्द-सत्ता के माध्यम से अपने को व्यक्त कर रही है। व्यक्तित्व का कविता पर कैसा असर होता है, यह भी यहाँ देखने लायक है, क्योंकि हम सन्त की सारभूत वाणी को, आस्वादन की काव्य प्रक्रिया से अधिक, प्रभामण्डल के प्रभाव में स्वीकार करते हैं। लेकिन यदि यही होता तो इस कृति पर लौकिक काव्य दृष्टि से विचार करना कठिन था, क्योंकि सिद्धान्त, विचार या मूल्य की प्रतीति के लिए हमारे पास दूसरे माध्यम हैं । वे साकार मानव चरित्र के जरिए स्थानान्तरित नहीं होते। परन्तु मूकमाटी' का कवि, साधना और सिद्धान्त जगत् में ही नहीं रहता, जीवन स्थितियों, उसकी संगतियों - विसंगतियों आदि पर भी उसकी सजग दृष्टि है । वह दार्शनिक विधि-निषेधों को भी लोक जीवन के समकाल में गूंथता चलता है । सम्भवत: इस तरह वह अपने दर्शन की परीक्षा भी युगभूमि पर करता है और युग में घटित को अपनी सैद्धान्तिक, वैचारिक या दार्शनिक दृष्टि भी देता है। यह बात मनुष्य के जीवन बोध को आश्वस्त करती है । उदाहरण के लिए शान्ति और अहिंसा को वह आतंकवाद के विपरीत धुव पर सन्धानता है-यह सन्धान एक ओर कवित्वमय हो उठता है तो दूसरी ओर दर्शन के लिए प्रयोजनीय भी : "जब तक जीवित है आतंकवाद शान्ति का श्वास ले नहीं सकती/धरती यह।" (पृ. ४४१) इस समकालीन 'डर' के भीतर कविता का जन्म कैसे होता है, इस ओर इशारा करता हूँ। आतंकवाद लोगों का जीना मुहाल कर देता है । उनका जी धक् रह जाता है, साँस रुक जाती है । व्यापक सन्दर्भ में आतंकवाद से पूरी पृथ्वी की शान्ति की साँस रुक जाती है । वह अशान्त हो उठती है-इसे हम अपने भीतर आतंकवादी दहशत के रूप में महसूस करते हुए उसका विश्वव्यापी रूप देख सकते हैं । यह कथन हमें धरती की मूल प्राण-चेतना शान्ति' के लिए एक आन्तरिक व्याकुलता के स्तर पर उद्वेलित करता है। इस तरह ये पंक्तियाँ हमारे मूल संवेदन को छूकर उसे विराट भी बनाती हैं और यह काव्यास्वाद की एक शर्त भी है। दर्शन, विचार के स्तर पर मनुष्य को विराट् बनाता है तो कविता आस्वाद के स्तर पर । इस काव्य का यह स्पृहणीय पक्ष है कि इसमें समकालीन राजनीति, बहुदलीयवाद, पूँजीवादी शोषण, अकर्मण्यता, विकृति आदि अनेक पक्षों को छुआ गया है। ऐसे प्रसंग दिखते हैं कि दर्शन को केवल आत्मसाधना का नहीं, जगत् साधनों का माध्यम भी बनाया गया है। कवि किस शैली में जनता का आह्वान करता है, उसे तमाम तरह के भ्रष्टाचारों के विरुद्ध खड़े होने को पुकारता है और उसमें छिपी अपार सम्भावनाओं को जगाते हुए जैन दर्शन के 'अनेकान्त' को कैसी अन्तरंगता में पहुँचाता है - यह देखना यहाँ दिलचस्प भी होगा और जरूरी भी। क्योंकि जिस व्यक्ति के भीतर दर्शन समाया हो और बाहरी संसार का कोलाहल भी उसे चिन्तित करे तो वह इन दो छोरों को कविता में कैसे समेटे? "प्रति-सत्ता में होती हैं/अनगिन सम्भावनायें।" (पृ. ७) 'प्रति सत्ता' और 'अनगिन' एक ओर दर्शन से और दूसरी ओर जीवन से जुड़ते हैं। जीवन से जुड़कर वे जन-जागरण का माध्यम बनते हैं और दर्शन से जुड़कर मन-जागरण का।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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