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एक विरागी का लोक राग : 'मूकमाटी'
डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय किसी साधक-सिद्ध के काव्य का रसास्वादन करना या न कर सकना एक बात है और उस पर आलोचनात्मक टिप्पणी देना दूसरी बात, क्योंकि उस भूमि पर पहुंचे बिना या उसे पहचाने बिना तो यह लौकिक औपचारिकता भर होगी। इसीलिए मैं आचार्य विद्यासागरजी के बृहत् काव्य ‘मूकमाटी' को छूने से डरता रहा और अगर अब साहस जुटा भी पाया हूँ तो इसलिए कि इस काव्य में ऐसा भी कुछ है जो हमारे आसपास घटित हो रहा है और उस पर एक साधुव्यक्तित्व की विरल दृष्टि पड़ी है। फिर भी इसे एक सामान्य पाठकीय प्रतिक्रिया ही माना जाए।
आचार्य विद्यासागरजी के तप:पूत व्यक्तित्व की एक लम्बे अर्से से ख्याति सुनता रहा हूँ। जो उनके सम्पर्क में रहे या जिन्हें उन्होंने अपनी दृष्टि से छुआ है, उनका अभिभूत होना भी अनकहे बहुत कुछ कह जाता है । सन्त के लिए वर्जित काव्य क्षेत्र में उन्होंने प्रवेश किया है तो निश्चय ही कोई ऐसी अनुभूति रही होगी, जिसे लोक तक, दर्शन या उपदेश की भाषा में नहीं पहुँचाया जा सकता था । मध्यकाल के सन्त कवियों ने भी अपने को लोक तक इसी माध्यम से पहुँचाया था । इसमें सम्भवत: आत्माभिव्यक्ति की अपेक्षा लोकसंग्रह की ही प्रधानता रही होगी।
यह आधुनिक जैन मुनि द्वारा विरचित काव्य है । अपभ्रंश में तो जैन काव्यों की एक समृद्ध परम्परा रही ही है। ‘पउम चरिउ', 'महापुराण', 'हरिवंश पुराण', 'णायकुमार चरिउ', 'करकण्डु चरिउ', 'परमप्पयासु' जैसे अमर काव्य अपभ्रंश और हिन्दी साहित्य की धरोहर हैं। 'मूकमाटी' को उसी परम्परा की आधुनिक कड़ी कहना चाहिए । अन्तर यह है कि वे काव्य, चरित्र या कथा के रोचक मार्ग से चलते हुए एक निश्चित आध्यात्मिक या दार्शनिक लक्ष्य पर पहुँचते हैं यानी अन्त में वे प्रतीक कथा में बदलते हैं, परन्तु मूकमाटी' प्रतीक से ही प्रारम्भ होने वाला काव्य है। मिट्टी या भूमि धरती माँ का प्रतीक है उसके भीतर जो कथा या पात्र हैं वे भी प्रतीक के रूप में ही ढले हुए लगते हैं। न तो माँ हाड़-मांस की है और न बेटी या अन्य पात्र कथात्मक परिवेश के प्रचलित पात्र । इसका सीधा अर्थ है कि प्रतीक में ही मानवीय भावों का समावेश । इस रचना के आस्वादन की प्राथमिक और बुनियादी शर्त है और एक पाठक के लिए अधिक जटिल मार्ग है । प्रतीक एक घनीभूत अर्थ है - अपनी सीमा में विराट् संकेतों की ओर ले जाता हुआ । दूसरी ओर 'मूकमाटी' का रचनाकार भी एक घनत्वमय या घनीभूत साधक है । वह प्रतीक के सहारे अपने को खोलता है और हम उनके सहारे सन्त के कवि मत तक पहुंचते हैं। कितना? यह अलग बात है। साधक के लिए दर्शन तो हस्तामलकवत् ही है इसलिए वह उसे सूत्र, सूक्ति, मन्त्र या सिद्धान्त के रूप में कहता है, कहीं शब्द में दर्शन को, सत्ता को केन्द्रित कर देता है, जबकि ये दोनों बातें सामान्य काव्यास्वाद को बाधित करती हैं। जैसे :
“'नि' यानी निज में ही/'यति' यानी यतन-स्थिरता है
अपने में लीन होना ही नियति है।” (पृ. ३४९) यह सूत्रात्मकता वैचारिक या दार्शनिक बोध को जगाती है, क्योंकि यह शब्द के आन्तरार्थ की ऐसी व्याख्या है जो मनुष्य को एक विशिष्ट परिज्ञान कराती है । इसी तरह कवि की सन्धनित अभिव्यक्ति पाठक के भीतर तात्त्विक चेतना को जगाती है :
"तामसता काय-रता है/वही सही मायने में/भीतरी कायरता है !" (पृ. ९४)