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गहन प्रश्नों का सरल उत्तर : 'मूकमाटी'
भगवती प्रसाद बेरी
आचार्य श्री विद्यासागरजी की रचना 'मूकमाटी' पढ़ी। अलंकारों से सुसज्जित यह काव्य मानव समाज के गहन प्रश्नों का उत्तर ऐसी सरलता से देता है कि नैतिकता का पाठ सजीव हो उठता है । इसकी शैली अनुपम है। एक मर्तबा नहीं बार-बार पढ़ने से यह दिल और दिमाग़ पर अपनी छाप गहरी करेगी। शायद पाठक कुछ सुधरे ! माटी मूक नहीं, वाचाल है मुनिश्री के कर-कमलों में ।
'मूकमाटी' महाकाव्य : शृंगार रस की नितान्त मौलिक व्याख्या
सम्पादक : विश्वमित्र
प्रस्तुत पुस्तक 'मूकमाटी' एक महाकाव्य है जिसे सन्त कवि ने चार खण्डों में विभाजित किया है। पहला खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' माटी की उस प्रारम्भिक दशा के परिशोधन की प्रक्रिया को व्यक्त करता है जहाँ वह पिण्ड रूप कंकर कणों से मिली-जुली अवस्था में है ।
दूसरा खण्ड ' शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में साहित्य बोध को अनेक प्रभागों में अंकित किया है। यहाँ नव रसों को परिभाषित किया गया है। संगीत का अन्तरंग प्रतिपादित है । शृंगार रस की नितान्त मौलिक व्याख्या है। ऋतुओं के वर्णन में कविता अपनी चरम सीमा पर है। साथ ही पद-पद पर तत्त्व दर्शन उभरता रहता है। भाव यह है कि उच्चारण मात्र 'शब्द' है, शब्द का सम्पूर्ण अर्थ समझना 'बोध' है और इस बोध को अनुभूति में, आचरण में उतारना 'शोध' है।
कवि ने तीसरे खण्ड का नाम 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' रखा है । इस खण्ड में बतलाया है कि मन, वचन, काय की निर्मलता से, शुभ कार्यों के सम्पादन से, लोक कल्याण की कामना से पुण्य उपार्जित होता है । क्रोध, मान, माया, लोभ से पाप का उदय होता है। इस खण्ड में कुम्भकार ने माटी की विकास कथा के माध्यम से, पुण्य कर्म के सम्पादन से उपजी श्रेयस्कर उपलब्धि का चित्रण किया है । मेघ से मेघ मुक्ता का अवतार यानी मुक्ता की वर्षा होती है । मुक्ता पर राजा का अधिकार । पाप की सृष्टि । परन्तु, कुम्भकार द्वारा मुक्ताओं का राजा को अर्पण । धरती की कीर्ति से सागर में क्षोभ, बड़वानल, तीन घन बादलों का उमड़न, राहु द्वारा सूर्यग्रहण, इन्द्र द्वारा मेघों पर वज्र प्रहार, ओलों की वर्षा फिर प्रलयंकर दृश्य आदि भी हैं।
अन्तिम चतुर्थ खण्ड ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में कुम्भकार ने माटी को घट का रूप दे दिया है । अवा में तप कर माटी पक जाती है और कुम्भ बन जाती है। इसी को लेकर श्रद्धालु नगर सेठ गुरु का पाद प्रक्षालन करता है एवं गुरु की तृषा तृप्त होती है। स्वर्ण कलश के अपमान से संघर्ष भी उपस्थित होता है । परन्तु बात समझ में आते ही सब ठीक हो जाता है । इस महाकाव्य में आधुनिक जीवन में विज्ञान से उपजी कतिपय नई अवधारणाएँ भी हैं, जो 'स्टार 'वार' तक पहुँची हैं ।
[सम्पादक-‘विश्वमित्र’(हिन्दी दैनिक), कोलकाता - पश्चिम बंगाल, ७ अक्टूबर, १९९१]
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