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4 :: मूकमाटी-मीमांसा कहा जाता है कि शब्दों का पौर्वापर्य बुद्धि का विषय है । बुद्धि ही शब्द विन्यास करती है। महाकाव्यों के लिए तो यही सत्य है। कहा भी है :
"बुद्धौ कृत्वा सर्वचेष्टाः कर्ताधीरस्तत्त्वनीतिः।
शब्दे नार्थान्वाच्यान्दृष्ट्वा बुद्धौ कुर्यात्पौवापर्यम् ॥" अर्थबोध की प्रक्रिया में विचार और वस्तु का अपरिहार्य सम्बन्ध होता है। यह सम्बन्ध ही काव्य को गति सम्पन्न कर पाठक के लिए प्रेषणीय बनाता है । 'मूकमाटी' की यह असन्दिग्ध विशेषता है कि शब्द और अर्थ का संयोजन वैचारिक भूमि पर होते हुए भी उनमें एक ऐसी संश्लिष्टता है, जो पाठक की भावभूमि को आत्मसंवेदन से प्रभावित करती है । जैसे:
"कभी-कभी फूल भी/अधिक कठोर होते हैं/"शूल से भी।” (पृ. ९९) , यह विरोधाभास है, पर उसके अतिरिक्त भाव शबलता और प्रवणता का उदाहरण अन्यत्र भी है :
“जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं
साधक की अन्तर-दृष्टि में।” (पृ. २६७) इसी प्रकार :
"सब पदार्थों को विस्मृत करना ही/सही पुरुषार्थ है ।" (पृ. ३४९) आचार्य विद्यासागर स्वयं सफल साधक हैं। उनका व्यक्तित्व श्रमण धर्म का साक्षात् मूर्त रूप है । गहन, गम्भीर, व्यापक वैदुष्य ने उनके साधक और श्रमणत्व को और अधिक महान् प्रज्ञावान् बना दिया है । इस काव्य का उद्देश्य है रूपकत्व और प्रतीकार्थ से आत्मा को कर्म विपाक से संवर और निर्जरा द्वारा शुद्ध रूप में प्रतिष्ठित कर उसके सनातन रूप को प्रतिपादित करना । कवि अपने प्रयोजन में पूर्णत: सफल है । आत्म प्ररोहण से उसने इस महान् काव्य की रचना की है-स्रष्टा और द्रष्टा दोनों दृष्टियों से।
पृ. ५०
तेन और मन को तप की आग में
तपातपा कर....... उदार समुश