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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 3 राख।' इन चार खण्डों की विशद भूमि पर विवेचना करते हुए कवि ने जैन दार्शनिक पद्धति का निरूपण कर आत्मोद्धार में अन्त किया है । आत्मदर्शन इस उपक्रम में तप है, तपना है, साधना है । साहित्य बोध, संगीत, रस निष्पत्ति और सूत्राश्रित कथनों का सार्थक उपयोग मुनिश्री ने किया है । यही नहीं, इसमें भौतिकवादी स्वर्ण कलश का आतंक है, गुरु की देशना है, नगर सेठ श्रावक की कथा है, जिसके माध्यम से जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की विवेचना कर, सम्पूर्ण कृति को उच्चतर मानवीय बोध, बृहत् सामाजिक दायित्व, सांस्कृतिक निष्ठा और उत्कृष्ट मूल्यवत्ता से आदर्श संहति दी है। आचार्यश्री की शैली की विशेषता उनका शब्द-विन्यास है, जिसमें उन्होने नए-नए अर्थों को व्यंजित किया है। इसी में अलंकरण प्रक्रिया भी सन्निहित है । कुछेक शब्द इस प्रकार हैं- नियति, नारी, कला, पायस, आकाश आदि । यत्रतत्र जैन सूत्रों का प्रयोग कथाप्रवाह की अन्तर्भूमि को सम्पुष्ट करता हुआ पाठक को उसकी साधना-पद्धति से परिचित कराता है । आचार्यश्री का यह ग्रन्थ जैन साधना-पद्धति का निरूपण करता है । वस्तुत: जीवनोत्कर्ष की यह यात्रा, कर्म से मुक्ति की यात्रा है- सिद्ध पद की। माटी जीव है, कुम्भकार गुरु, सेठ श्रावक आदि । इसी कारण जैन दर्शन के अनेक शब्दों का यत्र-तत्र खुलकर प्रयोग हुआ है, यथा- ‘दयाविसुद्धो धम्मो, कायोत्सर्ग, खम्मामि खमंतु मे, उत्पाद-व्यय - ध्रौव्य युक्तं सत्' आदि । इस काव्य का प्रारम्भ प्रकृति के अनिन्द्य सौन्दर्य से होता है। अनेक ऋतुओं के प्रभावी वर्णन से सहज आकर्षण और सुषमाभिमण्डित छटा की व्याप्ति काव्य के रूप विधान को और आकर्षक बना देती है । एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा जिसमें बिम्ब-विधान का अद्भुत कलात्मक प्रयोग है : "आज इन्द्र का पुरुषार्थ/सीमा छू रहा है,/दाहिने हाथ से धनुष की डोर को दाहिने कान तक पूरा खींचकर/निरन्तर छोड़े जा रहे तीखे सूचीमुखी बाणों से/छिदे जा रहे, भिदे जा रहे, विद्रूप-विदीर्ण हो रहे हैं/बादल-दलों के बदन सब।" (पृ. २४६) मुनि कवि ने 'मूकमाटी' को साधन ग्रन्थ का रूप दिया है, जिससे वह जीवन की परम व्याप्ति और ज्ञप्ति का सन्दर्भ ग्रन्थ बन गया है । महान् काव्य अपने रूप विधान में दर्शन ग्रन्थ हुआ करते हैं, और इसी प्रकार दर्शन ग्रन्थ महत् काव्य भी । बाइबल, उपनिषद्, सौन्दर्यलहरी, रामचरितमानस, कामायनी, डिवाइन कामेडी, पैराडाइज़ लॉस्ट एण्ड पैराडाइज़ रिगेण्ड इसके प्रमाण हैं। काव्य की उच्चतम संहति दर्शन में होती है और दर्शन की काव्य में । 'मूकमाटी' में दोनों का सम्यक् निर्वाह हुआ है पर इस वैशिष्ट्य के साथ कि दोनों में समायोग है- न तो दर्शन काव्य पर हावी है और न काव्य दर्शन पर । कवि ने वाक् की चारों प्रकृतियों का- परा, पश्यन्ती, मध्यमा और बैखरी- का वर्णन करते समय काव्य की प्रवहमानता खण्डित नहीं होने दी । अनेक प्रसंगों में कवि की जन्मजात प्रज्ञा मधुमती भूमिका पर अधिष्ठित है और उसका आत्मदर्शन मन्त्रविद् होने के कारण देश-कालातीत होकर इस कथन को चरितार्थ करती है कि 'कवयः क्रान्तदर्शिनः।' “कवते सर्वं जानाति, सर्वं वर्णयति, सर्वं सर्वतो गच्छति वा ।" 'मूकमाटी' की एक बड़ी उपलब्धि उसमें शब्द और अर्थ में न्यून-अतिरिक्तता नहीं है- दोनों के संघट्टन का सफलता से निर्वहण हुआ है । अनुभूति और अभिव्यक्ति का पूर्ण तादात्म्य है । 'तर्क दीपिका' में शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को 'शक्ति' कहा है- 'अर्थस्मृत्यनुकूलपदपदार्थसम्बन्धः शक्तिः।' आचार्यों ने संकेत अथवा शक्ति को पहचानने के उपकरणों की विवेचना की है। इसमें रचनाकार की मानसिक प्रक्रिया ही मुख्य है, वही अर्थ ग्रहण कराती है। यह भी
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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