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'मूकमाटी' : एक विवेचन
प्रो. कल्याण मल लोढ़ा आचार्य विद्यासागर कृत 'मूकमाटी' अपनी सर्जना में सामान्य काव्यश्रेणी में परिगणित नहीं की जा सकती, उसे खण्ड काव्य, महाकाव्य अथवा महत् काव्य की कोटि में भी नहीं रखा जा सकता । उसका वैशिष्ट्य उसकी अन्तर्भुक्त दार्शनिक और आध्यात्मिक गम्भीरता और गहराई में सन्निहित है । वह एक परमोच्च कोटि का रूपक है, जिसमें आचार्यप्रवर ने साधना को जैन धर्मानुसार रूपायित किया है। इसका कवि केवल शब्दचेता अथवा अर्थचेता नहीं है, वह है आत्मचेता साधक, जिसने शब्द को अर्थ, और अर्थ को परमार्थ देकर आत्मा की पंच कोशात्मक ऊर्ध्व गति का आलेखन किया है। उसने प्रारम्भ में ('मानस तरंग') यह स्पष्ट कर दिया है कि सामान्यत: जो है, उसका अभाव नहीं हो सकता, और जो है ही नहीं, उसका उत्पाद भी सम्भव नहीं।' 'श्रीमद् भगवद् गीता' भी यही कहती है :
"नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥” (२/१६) कृति का उद्देश्य स्पष्ट क ते हुए आचार्य कहते हैं : “ऐसे ही कुछ मूल-भूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है और यह वह सृजन है जिसका सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर शृंगार-रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आता है, जिसमें लौकिक अलंकार अलौकिक अलंकारों से अलंकृत हुए हैं; अलंकार अब अलं का अनुभव कर रहा है।" इस महत् प्रयोजन से रचित यह काव्य शब्द और अर्थ से परिपूर्ण होकर, अपनी अपूर्व क्षमता और सार्थकता से कलाकृति बन जाता है और उसका प्रणेता ऋषि अर्थात् मन्त्रद्रष्टा।
प्रतीक विधान की अपनी विशिष्टता होती है। प्रकृष्टं तीकते इति प्रतीकम्' अर्थात् अर्थ ज्ञान या अर्थ प्राप्ति कराने वाले शब्दों को प्रतीक कहते हैं । अपनी विशेष लाक्षणिकता के कारण प्रकृष्ट अर्थ की व्यंजना प्रतीक करता है। प्रतीक पद्धति स्वेच्छा से प्रयुक्त अथवा परम्परागत संकेत से (अन्य) वस्तु या तात्पर्य उद्घाटित करती है । वह किसी विचार या गुण का अपने सम्बन्ध सूत्रों के कारण प्रतिविधान, दृष्टान्तीकरण या स्मरण कराता है । इसी से इसे प्रतिबिम्ब' के अर्थ में लिया गया है । इस प्रतीक विधान की चार कोटियाँ होती हैं- सादृश्य, साधर्म्य, शाब्दिक साम्य और प्रभाव साम्य । प्रतीक शैली के दो विधान होते हैं- अर्थगत व स्रोतगत । रूपक काव्य की विशेषता है- 'रूपारो पात्तु रूपकम् ।' इसमें प्रस्तुत और अप्रस्तुत की अभेदता रहती है- 'रूपयति तद्रूपतां नयति - उपमानोपमेये सादृश्यातिशयोद्योतनद्वारा एकतां नयतीति रूपकम् ।' काव्य में रूपकात्मकता का सफल निर्वाह कवि की सिद्ध सर्जनाशक्ति का प्रमाण है । इसमें कवि भावनाओं और वस्तुओं का मानवीकरण करता है । इसकी योजना प्रतीकात्मक होती है और वर्ण्य वस्तु का सांकेतिक रूप में प्रयोग होता है । प्रतीक विधान और रूपक वैशिष्ट्य ही 'मूकमाटी' की रचना-पद्धति है।
रूपक काव्यों की परम्परा भी प्रायः प्रत्येक साहित्य में पाई जाती है । अश्वघोष के नाटक, कृष्ण मिश्र का 'प्रबोध चन्द्रोदय', यशःपाल रचित 'मोहराजपराजय', वादिचन्द्र सूरि का ज्ञान-सूर्योदय, जैन साहित्य में 'मधुबिन्दु दृष्टान्त', 'वसुदेव हिण्डी', 'समरादित्य', 'कुवलयमाला', 'उपमिति-भवप्रपंच', 'मयण-पराजय' (हरिदेव) आदि प्रसिद्ध रूपक काव्य हैं । संस्कृत का 'प्रबोध चन्द्रोदय' तो प्रसिद्ध है ही। 'मूकमाटी' भी एक ऐसा ही महत्त्वपूर्ण रूपक काव्य है, जिसमें माटी को कुम्भकार मंगल घट में अवतरित करता है। इस अध्यात्म रूपक के चार खण्ड हैं-'संकर नहीं : वर्णलाभ' ; 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' ; 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' और 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी