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________________ 'मूकमाटी : साधनामार्ग का काव्यमय आध्यात्मिक दस्तावेज़ डॉ. प्रभुदयालु अग्निहोत्री आचार्य विद्यासागरजी का महाकाव्य 'मूकमाटी' इस बात का साक्षी है कि भारत में इस अनास्था और धुंधलके से भरी शताब्दी में भी अभी तक जैन मुनियों की साधना परम्परा अक्षत है । मुनि पुण्यविजय, जिनविजय, देशभूषणजी महाराज, आचार्य तुलसी और मुनि नथमलजी आदि के पवित्र जीवन और उनके श्रेष्ठ अवदानों को देखकर लगता है कि आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, उमास्वामी, पुष्पदन्त और हेमचन्द्र की विरासत सँभालने वाले मुनियों का अकाल अभी तक नहीं हुआ है । आचार्य विद्यासागरजी भी उसी शृंखला की एक स्वर्णिम कड़ी हैं । इस युग में जब अच्छे-अच्छे लेखक क्षणग्राही अस्तित्ववाद को वक्ष से लगाए, स्फुलिंग-सी छोटी-छोटी रचनाओं की ओर झुक रहे हैं तब लगभग ५०० पृष्ठों के विशालकाय महाकाव्य की रचना करना बहुत बड़े साहस का काम है - और फिर उस काव्य का, जो पुरानी साहित्यिक परम्पराओं से बहुत ऊपर उठकर परम शान्ति का द्वार खोलता है और सारी एषणाओं से अलग जाकर केवलीनिर्ग्रन्थता की ओर प्रगति के लिए प्रेरित करता है । सामान्य साहित्य जहाँ थककर विश्राम ले लेता है, वहाँ से मुनि विद्यासागरजी की काव्ययात्रा प्रारम्भ होती है । इसका रस लेने के लिए पाठक को उच्च भाव-भूमि पर आसन लगाकर बैठना आवश्यक है। 'मूकमाटी' दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुसार साधनामार्ग का काव्यमय आध्यात्मिक दस्तावेज़ है जिसमें छोटी से छोटी मानसिक विकृतियों और उनसे जुड़े जटिल प्रश्नों का सरल, साफ़-सुथरी भाषा में व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत किया गया है । कुल मिलाकर यह धार्मिक प्रवचनों का ही संग्रह ग्रन्थ कहा जा सकता है, जिसमें विचारों की ऊँचाई है, दार्शनिकता है, ईश्वरत्व की साधना के सरल, श्रेष्ठ सोपान हैं। फिर भी इसमें काव्यत्व खोजना निरर्थक होगा। यह चिन्तनमय खण्डों का संग्रह है । काव्य के लिए अपेक्षित लय, स्वर, कल्पना, सादृश्य प्रस्तुति, कथन की वक्रता और व्यंजना की तलाश इसमें नहीं करनी चाहिए और एक मात्र शान्त को छोड़कर अन्य कोई रस ढूँढ़ना भी व्यर्थ होगा । भाषा और शैली के प्रासादिक होते हुए भी आचार्यजी ने स्थान-स्थान पर शब्दों के साथ जो खिलवाड़ किया है, और जिसे भूमिका लेखक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने शोभा के रूप में बार-बार उद्धृत किया है, वह पुस्तक की गरिमा को बढ़ाता नहीं केवल हल्का उपहास ही प्रस्तुत करता है । वह अर्धशिक्षित भक्तों के बीच तो ग्राह्य हो सकता है, प्रबुद्ध पाठकों की दृष्टि में वह बहुत बचकाना है। इसी प्रकार पुस्तक की भूमिका में स्वयं लेखक ने ईश्वर और आस्तिकता को लेकर वैदिक परम्परा के चिन्तकों पर जो तर्जनी उठाई है वह न केवल अप्रासंगिक अपितु अनुचित भी है। फिर भी जीवन को उदात्त बनाने की मूलभूत दृष्टि और लोक के प्रति कारुण्य भावना को लेकर आचार्यप्रवर ने असीम धैर्यपूर्वक आत्मिक मलों के प्रक्षालन के लिए जो यह गंगाजल प्रस्तुत किया है, उसके लिए मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। पुस्तक पठनीय है और संग्रहणीय भी। पृष्ठ ४९ अरे कंकरो! मारीि से मिलय तो हुआ -... मशिनहीं बनतेतु
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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