SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 14 :: मूकमाटी-मीमांसा 'मूकमाटी' साधनागत द्वन्द्व और अन्तरायों के साथ जीवसाधना की जय - यात्रा का भी चित्रण करती है । मिट्टी की खुदान, छिलन, जलन, आघात सब साधनागत सहिष्णुता को द्योतित करते हैं । यह कठोर साधना इसलिए है कि उससे मंगल घट का निर्माण होना है । “लघुता का त्यजन ही/गुरुता का यजन ही / शुभ का सृजन है ।" (पृ. ५१ ) कवि इस तथ्य से पूर्णतया अवगत है कि विश्वशान्ति भोग में नहीं, त्याग में निहित है; हिंसा में नहीं, अहिंसा में विद्यमान है; उसे परिग्रह या संचय से नहीं, अपरिग्रह से प्राप्त किया जा सकता है। मार्क्स और फ्रायड जिसे पेट और काम की भूख कहते हैं वही जीवन का अथ और इति नहीं है। भोग और समाधि सहज रूप से एक साथ नहीं रह सकते। दैहिक शैथिल्य या तनावमुक्ति का नाम समाधि नहीं है। यह दर्शन की एक धारा तो हो सकती है पर अध्यात्म नहीं । आधुनिकता का चित्रण करता हुआ युगबोध को प्रस्तुत करता है पर उसकी तत्त्वनिरूपिणी दृष्टि यहाँ भी पूर्णतया सजग दिखाई पड़ती है : "इस युग के / दो मानव / अपने आप को / खोना चाहते हैंएक/ भोग-राग को / मद्य-पान को / चुनता है; और एक / योग-त्याग को / आत्म- ध्यान को / धुनता है । कुछ ही क्षणों में / दोनों होते / विकल्पों से मुक्त । फिर क्या कहना ! / एक शव के समान / निरा पड़ा है, और एक / शिव के समान / खरा उतरा है।" (पृ. २८६) साधक को रागमुक्त होना चाहिए। चारित्र्य और शील ही उसकी सम्पत्ति है पर क्या वह रागात्मक परिवेश में रहकर भी ऐसा बन सकता है ? कवि का उत्तर सकारात्मक है । भोगी फूल के समान है, लता से जुड़कर भी सूख जाता है, झर जाता है और योगी शूल के समान है, फूलों के संग रहकर भी निर्लिप्त रहता है : "ललित-लतायें ये / हमसे आ लिपटती हैं / खुलकर आलिंगित होती हैं तथापि / हम शूलों की शील- छवि / विगलित- विचलित नहीं होती, नोकदार हमारे मुख पर आकर / अपने राग- पराग डालती हैं / तथापि रागी नहीं बना पाती हमें / हम पर / दाग नहीं लगा पातीं वह ।” (पृ. १०० ) वस्तुत: चारित्र में दृढ़ और मन में दृढ़ सम्यक् दर्शन की भावना लेकर आत्मा का ध्यान करनेवाला साधक जगत् में रह कर भी मुक्त हो जाता है। 'मोक्ष पाहुड़' (गाथा ४९) में कहा भी गया है : "होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भाविय मईओ ।" ‘चरणं हवइं सधम्मो’– अर्थात् चरित्र रक्षा ही धर्म है । अब हिन्दी में अस्तित्ववादी प्रभाव के कारण उन्मुक् यौन-चेतना और भोगपरक जो भी साहित्य लिखा गया है या अलबेर कामू तथा ज्याँ पॉल सार्त्र जो कुछ लिख रहे हैं, वह भोगपरक निरीश्वरवादी अलगाव और सन्त्रासप्रिय देह की भूखभरी पीढ़ी के सैलाब से भरी रचनाएँ हैं । आधुनिक कथा साहित्य में नैतिकता के आयाम ढूँढने पर भी नहीं मिलते। कविता की भी यही स्थिति है। कुँवर नारायण लिखते हैं :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy