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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 15 “आमाशय, यौनाशय, गर्भाशय, जिसकी जिंदगी का यही आशय, यही इतना भोग्य, कितना सुखी है वह, भाग्य उसका ईर्ष्या के योग्य ।" 'मूकमाटी' के कवि ने इस कुहासे में एक किरण को फिर प्रखरता दी है और वह प्रखरता उपसर्ग या त्याग की विधि से फूटी है । संसर्ग, समर्पण और अहम् या व्यक्तिबोध का उत्सर्जन ही सृजनशील जीवन की सफलता है : "जो स्वाश्रित विसर्ग किया/सो/सृजनशील जीवन का/अन्तिम सर्ग हुआ। ...तुमने स्वयं को/जो/निसर्ग किया,/सो/सृजनशील जीवन का वर्गातीत अपवर्ग हुआ।" (पृ. ४८३) सहज और अकृत्रिम रूप में मनुष्य जन्म लेता है फिर वह विधि-निषेधों में बँधता सभ्यताओं को जन्म देता है। भूगोल, अर्थशास्त्र, सौन्दर्य शास्त्र और उपयोगिता शास्त्र की सीमाओं में बँधता और जूझता है पर जब सब कुछ छोड़ कर वह पुन: सहज और अकृत्रिम जीवन जीने के लिए प्रकृति की गोद में मुनि-चर्या स्वीकार करता है तो निसर्ग सिद्ध होता है। इसी जीवन-दर्शन से जिसमें कहीं दिखावा, प्रदर्शन, हीनता या उच्चता की ग्रन्थि नहीं, विश्व-मानव को सुख और शान्ति मिल सकती है । स्पष्ट है, कवि ने उपनिषदों के ज्ञानवाद और प्रकृतिवाद को मुनिधर्म से जोड़ कर संन्यास को नई अर्थवत्ता दी है। 'ही' और 'भी' के माध्यम से कवि ने दोनों वृत्तियों के संघर्ष को वाणी दी है । भोगवादी कहता है, वही सब कुछ है, अध्यात्मवादी कहता है, वह भी कुछ है । 'ही' बद्ध दृष्टि है और 'भी' स्याद्वाद के कारण मुक्त दृष्टि है : “ 'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को 'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है 'भी' वस्तु के भीतरी-भाग को भी छूता है,/'ही' पश्चिमी-सभ्यता है 'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता।” (पृ. १७३) जैन आचार्यों के अनुसार गृहस्थ में दान भाव और त्यागपूर्वक भोग भाव द्वारा जीवन को उन्नत बनाया जा सकता है। इन्द्र को मिथिलानरेश निमि ने उपदेश देते हुए कहा था-"मैं सुख पूर्वक रहता हूँ, क्योंकि मैं किसी भी वस्तु को अपनी नहीं मानता। इसलिए सम्पूर्ण मिथिला के जल जाने पर भी मेरा कुछ जलने वाला नहीं, क्योंकि अक्षय ज्ञान रूपी वित्त सदैव मेरे पास रहेगा।" "सुहं वसामो जीवामो जेंसि मो नत्थि किंचण । मिहिलाए डज्झमाणीए न मे डज्झइ किंचण ॥” (उत्तराध्ययन, ९/१४) 'ईशावास्योपनिषद्' त्यागपूर्वक भोग को ही महत्त्व देता है । श्रमणेतर वैदिक परम्परा में शुकदेव और जनक के संवाद के रूप में भी यही धारणा व्यक्त हुई है । जनक कहते हैं : “अनन्तवत्तु मे वित्तं न मे दह्यति किञ्चन । मिथिलायां प्रदग्धायां न मे दह्यति किञ्चन ।" इसीलिए कवि माटी को साधक का सर्वमान्य आदर्श बताते हुए कहता है :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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