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16 :: मूकमाटी-मीमांसा
"माटी स्वयं भीगती है दया से/और/औरों को भी भिगोती है।" (पृ. ३६५) 'मूकमाटी' चार खण्डों में विभाजित काव्य है । प्रथम खण्ड का शीर्षक 'संकर नहीं : वर्णलाभ' है, यहाँ 'अहिंसा के व्यापक स्वरूप का चित्रण हुआ है । द्वितीय खण्ड का शीर्षक 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं', 'सत्य' के स्वरूप का चित्रण करता है । तृतीय खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' नाम से है जिसमें अस्तेय और ब्रह्मचर्य का निरूपण हुआ है तथा चतुर्थ खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' शीर्षक के रूप में निर्मित है, जिसमें अपरिग्रह का चित्रण हुआ है । यहाँ साधना की पूर्णता लक्षित होती है, क्योंकि यहाँ मंगल कलश या सिद्ध साधक का पूर्ण उत्सर्ग अभिव्यंजित हुआ है । भोग से त्याग की सुखद किन्तु कठोर यात्रा का पर्यवसान इस खण्ड में उपलब्ध है। इस प्रकार क्रमश: देह तथा आत्मशोधन, तत्त्वदर्शन या निदान, पुण्य कर्म सम्पादन तथा तपे-पके साधक की मुक्ति का चित्रण चारों खण्डों में मिलता है। कुम्भ की यात्रा का लक्ष्य था :
"मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है। ...इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुम से मुझ में जल-धारण करने की शक्ति है
जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।” (पृ. २७७) और परिपक्व कुम्भ की परिणति है :
" 'स्व' को 'स्व' के रूप में / 'पर' को पर के रूप में/जानना ही सही ज्ञान है,
और/'स्व' में रमण करना/सही ज्ञान का 'फल'।" (पृ. ३७५) मिट्टी को व्यापक अर्थों में गृहीत करने के लिए कवि के पास वैदिक और श्रमण परम्परा की सुदीर्घ और पुष्ट विचारधारा है। वेद का ऋषि मिट्री को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे पृथ्वी! तू प्राणियों के निवास योग्य बनी है, तू कंटक विहीन हो अर्थात् आततायी और लुटेरे तेरे निवासियों को न सताएँ। तू बीज, फल, पुष्प, औषधि तथा अन्नधन से सबको सुखी बना । तू क्षमाशीला है, सबको मैत्री, क्षमा और दया की सीख दे जिससे वह तेरे समान प्रशस्त या सुप्रथ बन सकें :
"स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरा निवेशनी।।
यच्छा नः शर्म सप्रथाः।” (यजुर्वेद - ३५.२१) 'श्रीमद्भागवत' में भी मिट्टी को क्षमाशीलता, मैत्री और समभाव का प्रतीक बताया गया है, उससे उद्भूत पर्वत आदि भी परोपकार ही करते हैं। अत: साधु पुरुष को चाहिए कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनके परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे :
"भूतैराक्रम्यमाणोऽपि, धीरो दैववशानुगैः, तद् विद्वान् न चलेन्मार्गादन्वशिक्षं क्षितेर्वतम् । शश्वत्परार्थसर्वेह: पराकान्तसम्भवः; साधुः शिक्षेत भूभृत्तो नगशिष्यः परात्मताम् ॥” (११/७/३७-३८)