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मूकमाटी-मीमांसा :: 17
श्रमणपरम्परा के ग्रन्थों में 'दस भक्ति' के अन्तर्गत आचार्य भक्ति' (प्राकृत/५) में कहा गया है :
"उत्तमखमाए पुढवी।" अर्थात् उत्तम क्षमा में पृथ्वी के समान आदर्श होना चाहिए। दसवेआलियं' (१०/१३) में भी आया है कि पृथ्वी के समान क्षमाशील, निदान या फल की कामना से मुक्त तथा नृत्यगानादि भोगविलासों में उत्सुकता या रुचि न रखने वाला ही मुनि है :
"पुढविसमे मुणी हवेज्जा,
अनियाणे अकोउहल्ले य जे, स भिक्खू ।" 'सूत्रकृतांग' में 'पुढवी जीवाण' कहकर जल, अग्नि, वायु, वनस्पति के साथ पृथ्वी को भी अहिंसा योग्य माना गया है। इनका प्रदूषण ही महावीरजी की दृष्टि में हिंसा थी । अत: पृथ्वी को अप्रदूषित भावना, क्षमाशीलता, दया, समभाव, भूतहित तथा अनासक्ति का प्रतीक माना जा सकता है । वैदिक और श्रमणपरम्परा में पृथ्वी और उपलक्षित मृत्तिका इसी विचार की द्योतक है । आचार्य विद्यासागरजी ने मिट्टी को इसी विचार वृत्त से कविता के लिए चुना और समग्र भारतीय चिन्तन का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया । मृत्तिका को उन्होंने सार्वभौम साधना और शुभाकांक्षा के रूप में सामने रखा । जीवन सम्बन्धों और भावनाओं का वैविध्य 'मिट्टी' के सहारे दिखाना सरल काम न था । दर्शन विशेष की अवधारणाओं को आधुनिक परिदृश्य के अनुकूल प्रस्तुत करना भी सहज न था। आतंकवाद और दमन में विश्वास रखने वालों को क्षमाभाव की शिक्षा देकर हृदयपरिवर्तन के लिए प्रेरित कर देना सर्वात्मवादी, सर्वोदयी और अनेकान्तवादी विचारकों की भावना का द्योतक तो है ही, युगीन समस्या का समाधान प्रस्तुत करने की दिशा में कवि की तत्परता भी है। अत: युग और युगीन व्यवस्था के ताज़े सन्दर्भो की ओर इशारा करना भी कवि का लक्ष्य रहा है। पन्तजी ने छान्दोग्य' के अनुसार जिस प्रकार 'सत्यकाम' में अग्नि, वृषभ, मद्गु आदि के माध्यम से दर्शन बोध कराया है, आचार्य विद्यासागरजी ने शूल, लता, कंकर, मृत्तिका, बबूल, अवा, कुम्भ, मच्छर, झारी तथा स्वर्ण कलश के प्रतीकों द्वारा विविधतापूर्ण सामाजिक व्यवस्थाओं, धारणाओं तथा प्रवृत्तियों का विश्लेषण किया है। इतने सूक्ष्म धरातल पर काव्य और दर्शन का अनोखा संगम प्रस्तुत कर देना ही 'मूकमाटी' के महाकाव्यत्व का प्रमाण है।
. यह बात मैं विशेष रूप से कहना चाहता हूँ कि वैराग्य की भित्ति पर रागात्मक मनोदशाओं के चित्र उकेरने में कवि ने अद्भुत कौशल का परिचय दिया है । दर्शन के तत्त्वों का विवेचन व्यंजनागर्भित होने के कारण इसका काव्यत्व विशृंखलित नहीं हुआ । काव्योन्मुख दर्शन इस रचना की धुरी है, दर्शन का पैवंद रचना के कलेवर पर नहीं टैंका । कवि का शब्दों और उनकी निरुक्तियों पर असाधारण अधिकार है । वह सामान्य से सामान्य शब्द को लेकर भी अदेखे, अप्रत्याशित और अचीन्हे अर्थ उद्घाटित कर देता है । कुम्भकार और गदहा जैसे सामान्य और तुच्छ शब्दों को भी वह नवीन अर्थवत्ता के साथ प्रस्तुत करता है । इसके अतिरिक्त प्राकृतिक परिदृश्यों के चित्रण में उसने क्षीरधर्मी दृष्टि का भी परिचय दिया है । बिम्बात्मक भाषा के कारण काव्य का शिल्प महनीय हो उठा है, एक दृश्य देखें :
"पर्वतों के पद लड़खड़ाये/और/पर्वतों की पगड़ियाँ/धरा पर गिर पड़ीं, वृक्षों में परस्पर संघर्ष छिड़ा/कस-कसाहट आहट/स्पर्य का ही नहीं, अस्पW का भी स्पर्शन होने लगा/कई वृक्ष शीर्षासन सीखने लगे, बांस दण्डवत् करने लगे/धरा की छाती से चिपकने लगे।” (पृ. ४३८)