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18 :: मूकमाटी-मीमांसा
'मूकमाटी'आधुनिक जीवन का निदान शास्त्र है, काव्यत्व से ओतप्रोत बोधशास्त्र है। इसीलिए मैं इसे 'बोधकाव्य' कहने का पक्षधर हूँ। उदात्त विषय, उदात्त भावबोध, उदात्त भाषा तथा उदात्त शिल्प से युक्त होने के कारण यदि इसे कोई महाकाव्य कहना चाहे तो कह सकता है पर इसके सभी प्रतीक पात्र क्योंकि उपदेश करते हुए चलते हैं, अत: इसे 'अध्यात्मबोध काव्य' कहा जाना ही युक्तिसंगत प्रतीत होता है। आधुनिक विडम्बना को भोगता हुआ मनुष्य यदि इन पंक्तियों को जीवन में उतार ले तो उसका कल्याण हो सकता है । अभिन्नता और अद्वैतता ही 'मूकमाटी' का मुखर सन्देश है :
"जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक ही अन्तर-दृष्टि में।/निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर/वेद से अवेद की ओर बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए/अन्यथा,/वह यात्रा नाम की है यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है ।" (पृ. २६७)
'मूकमाटी' : रूपक द्वारा गहन अध्यात्म का इंगन
प्रो. (डॉ.) जगदीश चन्द्र जैन आचार्यश्री विद्यासागर की कृति का स्वागत है । कठोर तपश्चरण के साथ-साथ साहित्यिक प्रवृत्तियों के हेतु समय निकाल पाना श्रेयस्कर समझा जाएगा। यह आदर्श की बात है। पुरातन काल में हमारे सम्मान्य सन्त-महन्तों एवं मनीषी आचार्यों ने जो हमारी संस्कृति को समृद्ध बनाया है, एतदर्थ हम उनके सदा ऋणी रहेंगे।
माटी जैसी नगण्य एवं अकिंचन समझी जाने वाली वस्तु को अपनी काव्य प्रतिभा का विषय बनाकर उसे उच्च पद पर प्रतिष्ठित करना असाधारण सूझबूझ का द्योतक है । एक कुशल शिल्पी की कला के संयोग से एक निरीह वस्तु मंगल घट के रूप में जीवन की सार्थकता को प्राप्त कर लेती है, यह गम्भीर आलोचना का विषय है। मूकमाटी के रूपक द्वारा गहन अध्यात्म की ओर इंगित किया गया है। काश, पतन के गर्त की ओर अग्रसर होता हुआ हमारा समाज, मानव मूल्यों को पुन: गतिशीलता प्रदान करने के हेतु, इस अमूल्य कृति का श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन करने में सक्रिय रूप से प्रवृत्त हो सके, इसी एक मात्र कामना के साथ।
arvs निशा की अवसान रहा है । INM ऊपाकी अबशान ये है।