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'मूकमाटी' महाकाव्य : नयी कविता का एक सशक्त हस्ताक्षर
डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' 'मूकमाटी' एक दार्शनिक महाकाव्य है जो आधुनिक सन्दर्भ में भी बेजोड़, शाश्वत मूल्यों को प्रस्थापित करता है। आज के उद्वेलित समाज में प्रस्फुटित विचारों के नए अंकुरों में विज्ञान अपनी पैठ जमा रहा है और भारतीयता के परिवेश में जीवन-मूल्यों को परखने के लिए हमारी देहली पर दस्तक दे रहा है। आज की नई पीढ़ी में एक सवाल उभर रहा है कि क्या आध्यात्मिकता आधुनिकता के वैचारिक धरातल पर अपने आप को युगीन और कालबाह्य सिद्ध कर सकेगी? या यों कहें कि क्या आध्यात्मिकता की उपेक्षा हमारे जीवन की यथार्थता को समझने के लिए घातक सिद्ध नहीं होगी ? यदि इस प्रश्न को उत्तरित करने में हमारा मन विधेयात्मकता की ओर झुकता है तो फिर प्रश्न उठेगा कि वह कौन-सा रूप हो सकता है जो हमें जीवन-मूल्यों की अर्थवत्ता को तर्कसंगत और बुद्धिसंगत बना दे और सहजता पूर्वक प्रतिभासित करा दे कि जीवन की इयत्ता भौतिकतावादी मनोवृत्ति में नहीं बल्कि उससे प्रतिमुक्त त्याग के परिवेश में पनपी वीतरागी सवृत्ति में है। 'मूकमाटी' महाकाव्य इसी सवृत्ति को अंकुरित और प्रतिष्ठित करने वाले दर्शन को अपने अनुपम अभिव्यंजना-शिल्प के माध्यम से प्रस्तुत करता है और साहित्य-जगत् में कालजयी सिद्ध होने के लिए दावेदार बन जाता है। 'मूकमाटी': आधुनिक हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में
आधुनिक हिन्दी काव्य में छायावाद से लेकर साठोत्तरी कविता तक कोई भी ऐसा काव्य या महाकाव्य दृष्टिपथ में नहीं आया जिसकी तुलना आचार्यश्री विद्यासागर के 'मूकमाटी' महाकाव्य से की जा सके । इसीलिए हमने इसे 'महाकति' कहा है। छायावादी यग में प्रसाद ने 'कामायनी', 'आँस' जैसे विरह प्रसत आनन्दवादीभावात्मक काव्यों की रचना की। पन्त ने 'ग्रन्थि', 'पल्लव', 'वीणा', 'उत्तरा, 'लोकायतन' आदि कृतियों में जीवन और जगत् के प्रति नई दृष्टि दी। निराला का अध्यात्म -चिन्तन और लोक-सृजन राम की शक्तिपूजा', 'सरोज स्मृति, तुलसीदास', 'कुकुरमुत्ता' आदि रचनाओं में प्रतिबिम्बित हुआ । महादेवी ने अपनी समूची काव्य-रचनाओं में विरह वेदना की अनुभूति की आत्यन्तिकता, मादकता और माधुर्य को अभिव्यक्त किया है । परन्तु इन सभी काव्यों में कहीं भी विरागता और शुद्ध आध्यात्मिकता के दर्शन नहीं होते। यह बात सही है कि छायावादी रहस्यवादी काव्य-चेतना के अन्तर्गत अभिव्यक्ति के सर्वथा नए आयाम सामने आए, व्यक्तिगत चेतना युगनद्ध हुई, कलात्मक बोध का विस्तार हुआ, चित्रात्मक परम्परा का सृजन हुआ, प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण किया गया, प्रेम-व्यापार भरे जीवन का दस्तावेज़ प्रगट किया गया, वासना का इज़हार हुआ परन्तु जीवन की यथार्थता और चेतना की विशुद्ध चिरन्तनता का कोई रूप वहाँ उपलब्ध नहीं होता। 'मूकमाटी' जिस पवित्र भावभूमि पर सृजित हुई है, वह उपर्युक्त किसी भी काव्यविधा में दिखाई नहीं देती । आचार्यश्री विद्यासागरजी ने, लगता है समसामयिक साहित्य की उपर्युक्त प्रवृत्तियों के प्रति असन्तोष व्यक्त करते हुए उन्हें साहित्य के यथार्थ से बाहर रखा और कहा कि यदि समसामयिक साहित्य, साहित्य के यथार्थ अर्थ से समन्वित हो तो ही वह सर्वोत्तम कहा जा सकता है, अन्यथा 'सार-शून्य शब्द-झुण्ड' ही होगा :
“सर्वोत्तम होगा सम-सामयिक !/शिल्पी के शिल्पक-साँचे में साहित्य शब्द ढलता-सा!/हित से जो युक्त – समन्वित होता है वह सहित माना है/और/सहित का भाव ही/साहित्य बाना है, अर्थ यह हुआ कि/जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव - सम्पादन हो