________________
जैसे तत्त्व भावों
20 :: मूकमाटी-मीमांसा
सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम
सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड"!" (पृ. ११०-१११) आधुनिक युग तर्कशीलता का युग है, विचार स्वातन्त्र्य का युग है, राष्ट्रीय भावनाओं के जागरण का युग है। इसमें यथार्थोन्मुख आदर्शवाद का विकास हुआ, औद्योगिक क्रान्ति हुई, व्यक्तिवाद और स्वच्छन्दतावाद का जन्म हुआ, रोमांटिक क्रियाकलाप बढ़े और आर्थिक विषमता पनपी । इसमें वर्तमान युग और समसामयिक की भूमिका के रूप में रिनेसाँ संस्कृति तथा पूँजीवादी समाज-व्यवस्थाओं का द्वन्द्वात्मक योग हुआ और आधुनिक शोध-बोध में सक्रियता आई। फलतः धर्मनिरपेक्षता, सार्वभौमिकता, सामाजिक सुधारवाद, सर्वोदयवाद, वर्णव्यवस्था विरोध, समाजवाद जैसी विचारधाराएँ लोकप्रिय होने लगीं। विज्ञानवाद पर भी बल दिया जाने लगा। धर्म की पारम्परिकता पर फलत: प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया। मूकमाटी' ऐसे ही प्रश्नचिह्नों को समाधानित करने की दृष्टि से रचा गया महाकाव्य प्रतीत होता है। रचना की पृष्ठभूमि और उद्देश्य
प्रत्येक रचना की पृष्ठभूमि में कोई न कोई परिस्थिति काम करती है । उसके भावों और विचारों का कोई सन्दर्भ विशेष होता है। रचना में गत्यात्मकता, प्रगाढता. अनभतिपरकता. संवेदनशीलता. सक्ष्मता जैसे
और विचारों में सम्पृक्ति के बिना उन्मेषित नहीं हो पाते, शब्द और अर्थ का साक्षात् योग नहीं हो पाता, नई नई उद्भावनाएँ नहीं आ पातीं और साधारणीकरण की प्रक्रिया जुट नहीं पाती। 'मूकमाटी' के अध्ययन से ऐसी धारणा बलवती होती जाती है कि उसकी रचना के पीछे कोई घटना विशेष है जिसने कवि को उद्वेलित कर दिया है। ऐसे ही उद्वेलन का परिणाम है 'मूकमाटी, जिसमें निमित्त-उपादान की सुन्दर मीमांसा की गई है। संवेदनशील कवि ने प्रस्तुत महाकाव्य में न निमित्त पर बल दिया है और न उपादान को प्रमुखता दी है, बल्कि उन्होंने आगमिक आधार पर उसका सापेक्षिक कथन किया है जो एक ओर दार्शनिक बोध का विस्तार करता है तो दूसरी ओर व्यावहारिक क्षेत्र में उतरकर वस्तु-स्थिति को समझने का संकेत करता है । निमित्त-उपादान का मूल्यांकन ऐकान्तिक दृष्टि से सम्भव नहीं है । यही 'मूकमाटी' का कथ्य है और यही उसका तथ्य है जो अवान्तर घटनाओं में अनुस्यूत है।
'मूकमाटी' यद्यपि महाकाव्य है, पर उसका उद्देश्य एक विशिष्ट दार्शनिक सिद्धान्त को स्पष्ट करना रहा है । वह दर्शन परम सत्त्व की प्रतिष्ठा है, उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त करने की प्रक्रिया है । काव्य भावात्मक होता है और दर्शन बौद्धिक । दर्शन की अनुभूति के लिए वासनाहीन होना पड़ता है पर काव्य की अनुभूति के लिए वासना एक अनिवार्य शर्त है । शुद्ध दार्शनिकों ने 'काव्यालापांश्च वर्जयेत्' कहकर इसी तथ्य को प्रस्तुत किया है । यद्यपि दोनों का सम्बन्ध जीवन की व्याख्या करना है पर उसका साधन भिन्न-भिन्न है। पाश्चात्य दार्शनिकों ने दर्शन और जीवन के इस सम्बन्ध को अनुभूति का विषय नहीं बनाया जबकि भारतीय दार्शनिकों ने अनुभूति को ही परम मूल्य के रूप में स्वीकारा है। इसलिए वे कवि भी हुए और दार्शनिक भी । दार्शनिकों ने काव्य-सृजन भी किया । आचार्यश्री दार्शनिक भी हैं और कवि भी हैं। विशेषता यह है कि 'मूकमाटी' काव्य होते हुए भी उसमें वासना का स्पर्श भी दिखाई नहीं देता । विरागता का रंग आदि से अन्त तक चढ़ा हुआ है । फिर भी काव्यात्मकता में कोई कमी नहीं आई बल्कि उसमें नए मानोंप्रतिमानों के कारण प्रभावात्मकता और भी बढ़ गई है । अत: वह लीक से हटकर एक अलग ही विधा का निर्मापक बन गया है।
___ भारतीय दर्शनशास्त्र नीतिशास्त्र से जुड़ा हुआ है । दर्शन के साथ नीति तत्त्व अथवा आचरण तत्त्व की व्याख्या भी यहाँ युगपत् होती रहती है। काव्य शुभ और अशुभ की भी व्याख्या करता है । कलावादी भले ही नैतिक तत्त्व को काव्य की श्रेष्ठता की कसौटी स्वीकार न करें पर दूसरे लोग उसका मूल्यांकन मानवीय आचरण की व्याख्या के आधार पर किया