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है।
देखिए :
नियति और पुरुषार्थ की विवेचना देखें :
जाना यानी मरण - व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर - ध्रौव्य है और/ है यानी चिर-सत् / यही सत्य है यही तथ्य..!” (पृ. १८५)
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''नि' यानी निज में हो / 'यति' यानी यतन - स्थिरता है अपने में लीन होना ही नियति है / निश्चय से यही यति है, और / 'पुरुष' यानी आत्मा-परमात्मा है
'अर्थ' यानी प्राप्तव्य - प्रयोजन है / आत्मा को छोड़कर सब पदार्थों को विस्मृत करना ही / सही पुरुषार्थ है ।” (पृ. ३४९) उपादान-निमित्त के बहुचर्चित विषय की व्याख्या देखिए:
जैन दर्शन स्याद्वाद, अनेकान्त को जीवन में महत्त्व देता है। इन दोनों को अपनाने से ही जीवन समस्याओं
का समुचित समाधान मिल सकता है। दोनों की सरल, सीधी व्याख्या देखिए :
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मूकमाटी-मीमांसा :: 479
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"उपादान कारण ही / कार्य में ढलता है /यह अकाट्य नियम है, किन्तु / उसके ढलने में / निमित्त का सहयोग भी आवश्यक है, इसे यूँ कहें तो और उत्तम होगा कि / उपादान का कोई यहाँ पर पर - मित्र है तो वह / निश्चय से निमित्त है / जो अपने मित्र का निरन्तर नियमित रूप से / गन्तव्य तक साथ देता है ।" (पृ. ४८१ )
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''ही' और 'भी'.... / ये दोनों बीजाक्षर हैं, अपने-अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
'ही' एकान्तवाद का समर्थक है / 'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक ।
हम ही सब कुछ हैं / यूँ कहता है 'ही' सदा,
तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो ! / और, / 'भी' का कहना है कि
हम भी हैं / तुम भी हो/ सब कुछ ! / 'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को
'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, /'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है 'भी' वस्तु के भीतरी भाग को भी छूता है।” (पृ. १७२-७३)
"प्रभु से प्रार्थना है, कि / 'ही' से हीन हो जगत् यह
अभी हो या कभी भी हो / 'भी' से भेंट सभी की हो ।” (पृ. १७३)
इसी प्रकार हिंसा-अहिंसा, दान, दाता, पात्र के गुणों का, दया आदि का विवेचन भी सरल शैली में किया गया
'मूकमाटी' में जीवन
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सम्यक् रूपेण जीने के लिए स्थान-स्थान पर सरल सूत्र दिए गए हैं। कुछ सूत्र
"आस्था के बिना आचरण में / आनन्द आता नहीं, आ सकता नहीं ।" (पृ. १२० )