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________________ 478 :: मूकमाटी-मीमांसा महाकाव्य में प्रयुक्त होने वाले नव रसों की व्याख्या बड़े सुन्दर रूप में 'मूकमाटी' में की गई है। यहाँ सभी रसों की परिपूर्णता करुण तथा शान्त रस में प्रदर्शित की गई है। महाकाव्य में किसी महत्त्वपूर्ण पौराणिक, ऐतिहासिक अथवा सामाजिक घटना को प्रमुख विषय बनाया जाता है। कोई महापुरुष उसका नायक होता है । प्रमुख घटना के अतिरिक्त अन्य अनेक घटनाएँ तथा अनेक व्यक्ति उसमें गुम्फित रहते हैं। पर 'मूकमाटी' में निर्धारित परम्परा को छोड़कर माटी जैसी मूक, तुच्छ, पददलित वस्तु को काव्य की विषयवस्तु बनाकर दार्शनिक, आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक धरातल की ऊँचाइयों पर उसे पहुँचाया गया है। इस काव्य के नायक, नायिका, खलनायक कौन हैं, काव्य का गन्तव्य क्या है, फल-प्राप्ति किसे होती है - आदि प्रश्न बड़े जटिल हैं । मोटे तौर पर कहा जाए तो माटी नायिका है, कुम्भकार नायक । फल-प्राप्ति है माटी से निर्मित मंगल घट द्वारा गुरुदेव का सेठ द्वारा पाद-प्रक्षालन । पर यह सब स्थूल स्तर पर ही कहा जा सकता है। धार्मिक स्तर पर नायक तो गुरु ही हैं, जिनके भी आराध्य हैं अरहन्त देव, जो गुरु के लिए भी अन्तिम नायक हैं। काव्य का कथानक संक्षेप में इस प्रकार है – कुम्भकार द्वारा खदान से आदरपूर्वक मिट्टी खोदकर घर लाया जाना, उसका कंकड़ आदि निकालकर शुद्ध किया जाना, शुद्ध छने-प्रासुक जल से उसे भिगोया जाना, चाक चक्र आदि से कुम्भकार द्वारा उसका घट निर्मित किया जाना, घट को सुखाया जाकर अवा में पकाया जाना, पकने पर उसे कलात्मक रूप दिया जाना, सेठ के भृत्य द्वारा उसे ले जाया जाना, सेठ द्वारा घट को मंगल कलश के रूप में स्थापित कर नवधा भक्ति के अन्तर्गत गुरुवर्य के चरण कमलों का प्रक्षालन । इस घटना चक्र के अन्तर्गत अनेक घटनाओं तथा पात्रों का घात-प्रतिघात हुआ है । घटना-चक्र में अनेक प्रसंग स्वाभाविक रूप से अवतरित होते चले गए हैं। माटी, धरती, कुम्भकार, सेठ, मंगल कलश आदि उत्तम पात्रों के धैर्य, क्षमा, सहिष्णुता, कीर्ति आदि को न सहनकर कंकर, शूल, समुद्र, मेघ, स्वर्ण कलश, मणि-मुक्ता उनसे द्वेष करते हैं तथा उनके मार्ग में अनेक बाधाएँ उपस्थित करते हैं, पर वे अन्तत: पराजित होते हैं। अन्त में सत्य की असत्य पर, पुण्य की पाप पर, धर्म की अधर्म पर तथा नीति की अनीति पर विजय होती है, जो इस काव्य का एक प्रमुख विषय है। 'मूकमाटी' में आचार्यश्री ने अनेक दार्शनिक सिद्धान्तों का भी विवेचन किया है । सृष्टि का कर्ता कौन है, प्रत्येक कार्य का कर्ता कौन है, उपादान-निमित्त का क्या स्वरूप है, क्या जैन धर्म नास्तिक है, हिंसा-अहिंसा क्या है, स्याद्वा-अनेकान्त क्या है-इत्यादि विषयों का सरल, काव्यात्मक ढंग से विवेचन किया गया है। इन सबके पीछे आचार्यश्री का उद्देश्य रहा है प्राणी की सुषुप्त चैतन्य शक्ति को जागृत कर, उसे शुद्ध बनाकर परम वीतराग और सर्वज्ञ बनाना । एक नि:स्पृही तथा वीतराग मार्ग के साधक इस सन्त के अनुभवों पर आधारित समाधानों को यदि अपनाया जाय तो आज का सन्तप्त मानव तथा समाज शान्ति प्राप्त कर सकता है तथा वह एक ऐसे विश्व का निर्माण कर सकता है, जिसमें : “यहाँ सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल विलसित हों।” (पृ. ४७८) रचनाकार ने सैद्धान्तिक विषयों को सरल काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया है । 'उत्पाद-व्यय-धौव्य' का प्रतिपादन देखिए : "आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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