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'मूकमाटी': आधुनिक साहित्य को नया मोड़ देने वाला काव्य
पं. भरत चक्रवर्ती जैन शास्त्री अनादि-अनन्त कालचक्र से भ्रमित इस पंचम काल में सन्मार्गोपदेशक खद्योत के समान यत्र-तत्र नयनगोचर होते हैं। इनमें आत्मसाधनारत, त्यागी, नग्न मुद्रा मुद्रित दिगम्बर साधु अत्यन्त विरले हैं, क्योंकि दिगम्बर साधु का यमनियम-संयम हर व्यक्ति के लिए सुलभ नहीं है । दिगम्बरत्व का पात्र वे ही हो सकते हैं जिनके अन्तरंग में मोह-राग और मूर्छा आदि का यथायोग्य अभाव हुआ हो।
आत्मसाधनारत साधु-महात्मा लोग अपनी प्रखर प्रतिभा का परिचय जन-कल्याण हेतु समय-समय पर अपूर्व काव्य रचनाओं द्वारा देते आए हैं। इसी शृंखला में 'मूकमाटी' के रचयिता बालयोगी स्वनामधन्य आचार्यश्री विद्यासागरजी
शरीराश्रित इन्द्रियभोग एवं कषायवर्धक घटनाओं से पूरित वर्णन को ही काव्य के नाम से सामान्य जनता जानती आई है । परन्तु आचार्यश्री की अध्यात्म रसपूर्ण इस रचना ने पूर्वोक्त मान्यता पर कुठाराघात कर दिया है। साथ ही आधुनिक साहित्य के लिए एक नया मोड़ प्रदर्शित कर महान् उपकार किया है। आखिर भावना की अभिव्यक्ति ही तो काव्य है।
चार खण्डों में विभक्त 'मूकमाटी' ग्रन्थ में कहीं अध्यात्म है तो कहीं निमित्त-उपादान; कहीं निश्चय-व्यवहार; कहीं दान-दाता-पात्र-विधि; कहीं ध्यान-ध्येय-ध्याता तो कहीं आपा-पराया आदि अनेक सिद्धान्तों को सरल, सुबोध एवं जनसाधारण के परिचित उदाहरणों से स्पष्ट किया है । अत: सबका अभिमत उल्लेख करना यहाँ सम्भव नहीं, अन्यथा एक लघ ग्रन्थ बनने की आशंका है। इसलिए मैं कुछ-एक उदाहरणों से ही अपना अभिमत लिखना उचित समझता हूँ:
“सत्ता शाश्वत होती है, बेटा!/प्रति-सत्ता में होती हैं/अनगिन सम्भावनायें उत्थान-पतन की,/खसखस के दाने-सा/बहुत छोटा होता है बड़ का बीज वह !/समुचित क्षेत्र में उसका वपन हो/समयोचित खाद, हवा, जल उसे मिलें/अंकुरित हो, हो कुछ ही दिनों में/विशाल काय धारण कर
वट के रूप में अवतार लेता है,/यही इसकी महत्ता है।" (पृ.७) - जैसे अत्यन्त छोटा वट का बीज समुचित क्षेत्र, काल आदि बाह्य साधनों को पाकर राजा की चतुरंग सेना के विश्राम योग्य बृहत् काय वृक्ष बन जाता है, वैसे ही क्षुद्र शरीरवाला जीव भी योग्य साधनों को पाकर महान् बन सकता है । अतः किसी भी जीव को उसकी वर्तमान पर्याय की दृष्टि से न देखकर द्रव्य दृष्टि से उसकी अनन्त शक्ति को देखा करो। आशय यह है कि आचार्यश्री यहाँ हमें पर्याय दृष्टि को गौण कर द्रव्य दृष्टि से वस्तु के स्वभावभूत अनन्त शक्ति की ओर आकृष्ट करते हैं।
पर्वत की तलहटी से देखने पर उत्तुंग शिखर का दर्शन हो जाता है लेकिन शिखर का स्पर्श करना तो बिना चरणों के प्रयोग के सम्भव नहीं है। इसी प्रकार भव्य जीव का गन्तव्य स्थान स्व-स्वरूप में समा जाना ही है । स्व-स्वरूप में समा जाने के लिए संयम रूप पद (चरण) प्रयोग अवश्यंभावी है। जन रंजायमान, गगनचुम्बी तत्त्व निरूपण करने वालों को भी संयमारूढ़ हुए बिना इष्टार्थ मृग-मरीचिका के समान है। मिट्टी भी अपनी अनन्त पर्याय रूप पद-प्रयोग द्वारा ही कलश रूप पर्याय को प्राप्त हुई है। निम्न पद्यांश का सार यही है कि कथनी का महत्त्व करनी पर ही निर्भर है :
"पर्वत की तलहटी से भी/हम देखते हैं कि/उत्तुंग शिखर का दर्शन होता है,/परन्तु/चरणों का प्रयोग किये बिना