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________________ 466 :: मूकमाटी-मीमांसा शिखर का स्पर्शन / सम्भव नहीं है !" (पृ. १०) आजकल प्राय: सभी ‘पर' का मार्गदर्शक बनना चाहते हैं किन्तु स्वयं को पथ दिखता नहीं, क्योंकि वे पथ पर चलना नहीं चाहते । बुलन्द आवाज़ से तत्त्व - विवेचन करने पर भी 'चिराग तले अँधेरा' कहावत के अनुसार स्वयं गुमराह हो रहे हैं । इसीलिए आचार्य श्री का कहना है कि पहले कथन को कार्य रूप देकर स्वयं को आदर्श बनाओ, वरना तुम्हारे कथन का कोई सार नहीं निकलेगा : : "आज पथ दिखाने वालों को / पथ दिख नहीं रहा है, माँ ! कारण विदित ही है - / जिसे पथ दिखाया जा रहा है वह स्वयं पथ पर चलना चाहता नहीं, /औरों को चलाना चाहता है और/इन चालाक चालकों की संख्या अनगिन है ।" (पृ. १५२) कुम्भकार ने खाली बालटी को कूप में उतारा। तब वहाँ के मछली आदि जीव-जन्तु आशा के साथ उसकी ओर देखने लगे । बालटी ज्यों-ज्यों नीचे उतरती गई, त्यों-त्यों प्राणी निराश हो प्राण-रक्षा हेतु भाग कर छिप गए। इसी प्रकार आत्मा जब अपनी बाह्य दृष्टि को समेट कर अपने में उतरने लगी तो कुछ क्षण के लिए जलचर जीवों के जैसे टकटकी निगाह से अपनी पुष्टि के हेतु विषय - कषाय भी उत्साह से देखने लगे । परन्तु आत्मा अपने सहज सिद्ध शान्त रस में निमग्न हो अपने में समा जाने लगी तो वे विषय - कषाय भी अशरण जानकर भागने लगे अर्थात् विषय- कषाय का अभाव होता गया । यह पद्यांश केवल वचन जाल नहीं है, अध्यात्मवादी के लिए यह समय-सार है : " मछली की शान्त आँखें / ऊपर देखती हैं । / उतरता हुआ यान-सा दिखा, लिखा हुआ था उस पर / " धम्मो दया - विसुद्धो" / तथा “धम्मं सरणं गच्छामि " / ज्यों-ज्यों कूप में / उतरती गई बालटी त्यों-त्यों नीचे, / नीर की गहराई में / झट-पट चले जाते प्राण-रक्षण हेतु / मण्डूक आदिक अनगिन / जलीय -जन्तु ।” (पृ. ७०) दो व्यक्तियों में से एक भोग में लिप्त है तो दूसरा ध्यान में मग्न है। दोनों कुछ क्षण बाद संकल्प-विकल्प से मुक्त होते हैं पर भोगी शव के समान जाता है तो ध्यानी शिव के समान । योगी के सामने भोगी अवांछनीय ठहरता है । कारण, भोगी का ज्ञान अस्वस्थ है तथा योगी का ज्ञान स्वस्थ है । स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है । इसे पाना ही जीवन का लक्ष्य है । इस उदाहरण से आचार्यश्री ने अध्यात्मशास्त्रों का सार निकाल कर रख दिया है । अन्तर्मुखी योगी चिदात्मा का दर्शन कर आनन्द विभोर होता है : " इस युग के / दो मानव / अपने आप को / खोना चाहते हैंएक/ भोग-राग को / मद्य-पान को / चुनता है; और एक / योग-त्याग को / आत्म- ध्यान को / धुनता है । कुछ ही क्षणों में / दोनों होते / विकल्पों से मुक्त । फिर क्या कहना ! / एक शव समान/निरा पड़ा है, / और एक शिव के समान / खरा उतरा है।" (पृ. २८६) इस प्रसंग को 'मूकमाटी' ग्रन्थ का सिरमौर कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं । अलं विस्तरण ! O
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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