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'मूकमाटी' और उसके सर्जक आचार्यश्री विद्यासागरजी
मोहन शशि प्रात:स्मरणीय यशस्वी सन्त, तपःपूत आचार्यश्री विद्यासागर महाराज और उनकी महान् कृति 'मूकमाटी' को शत-शत नमन करता हूँ। महाराजश्री का सान्निध्य-सुख-सौभाग्य प्राप्त करने के मुझे अनेक सुअवसर उपलब्ध हुए हैं । उनके ही श्रीमुख से उनकी अमूल्य रचनाओं को सुनने तथा अपनी रचनाएँ उनके श्रीचरणों में अर्पित करने के स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति के क्षण भी मुझे प्राप्त हुए हैं। किन्तु, मैं अति विनम्रता के साथ यह स्पष्ट कह दूं कि महाराजश्री को समझ पाना मेरी सामर्थ्य के परे है। और जब मैं उन्हें ही नहीं समझ सका तब दो-चार बार पढ़कर उनकी महान् कृति 'मूकमाटी' को समझ लूँ, यह तो कतई सम्भव नहीं। किसी लोक कवि ने कहा है :
___ "माटी उढ़ौना, माटी बिछौना, माटी में मिल जाना...
एक दिन राम घरे सब जाना।" ऐसा नहीं है कि हम इस शरीर की गति नहीं जानते । हम में से एक-एक यह जानता है :
“आया है सो जाएगा, राजा, रंक, फकीर।" फिर भी काम, क्रोध, लोभ, मोह के वशीभूत हम कौन-सी तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं ? सब कुछ जानकर अनजान बने हुए हैं :
"माटी के पुतले.../काहे को बिसारा हरि नाम !" ऋषि, मुनियों, गुरुजनों, सन्त-महात्माओं, विद्वज्जनों ने कितनी बार खोले हैं हमारी ज्ञानेन्द्रियों के पट, किन्तु हर बार वही--ढाक के तीन पात । दिशादर्शन करने वालों की सराहना करते हम नहीं अघाते, लेकिन उस दिशा में अध्ययन, मनन, चिन्तन की अपेक्षा, पुन: 'मैं और मेरा' के घेरे में कामकाज, कारोबार में लग जाते हैं। जब तक जीवन है, तब तक काम है, मुक्ति नहीं । तारीफ़ तो तब है कि जब काम करते हुए भी, मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने का समय निकाला जाए। यही सन्देश देती है 'मूकमाटी', और यही सार भी है 'मूकमाटी' का।
“सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय ।" कन्नडभाषा के माध्यम से हाईस्कूल तक की शिक्षा प्राप्त करने वाले महाराज श्री विद्यासागरजी हिन्दी रचनाधर्मिता के ऐसे चतुर चितेरे हैं कि किसी परिपाटी में उन्हें घेरा नहीं जा सकता । बात सिर्फ हिन्दी की ही क्या, संस्कृत और अंग्रेजी आदि में भी उनकी शानी नहीं।
ऐसा शब्द चमत्कार दिखलाया है महाराजश्री ने कि जिसे शब्द की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता । मूकमाटी जैसे विषय पर महाकाव्य कोई साधारण नहीं, अपितु अ-साधारण बात है । मैं पुन: इसी निष्कर्ष पर पहुँचने पर बाध्य हूँ कि पद दलित, व्यथित, लाचार माटी की तरह इस तन पर ध्यान दें जो एक दिन माटी हो जाना है, माटी में मिल जाना है । और इसी भावना के साथ 'मूकमाटी' का एक-एक अक्षर, एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति नए सिरे से फिर पढ़ें। मुझे विश्वास है कि उसके सन्देश को आप ग्रहण कर पाएंगे। कर्मबद्ध आत्मा का विशुद्धि की ओर अग्रसर होकर मंज़िल की प्राप्ति के लिए मुक्ति यात्रा का रूपक है 'मूकमाटी'।