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________________ 'मूकमाटी' महाकाव्य की साहित्य-शोध की दिशाएँ डॉ. जगदीशपाल सिंह 'मूकमाटी' महाकाव्य में कथ्य तथा शिल्प स्तर पर अभिनव प्रयोग हैं। अत: यह सम्पूर्ण महाकाव्य अपनी समूची संरचना, प्रकृति तथा कार्यकारिता में शोधव्य है। 'शोध' शब्द 'शुध्' धातु से व्युत्पन्न हुआ है। शुध् का अर्थ शुद्ध करना है । शोध शुद्धीकरण की प्रक्रिया है । विकृत, मलिन, विस्मृत, अज्ञात तथा अशुद्ध तथ्यों को परिष्कृत तथा परिमार्जित बनाने की सम्पूर्ण प्रक्रिया शोध कहलाती है । 'मूकमाटी' के रचयिता जैन मुनि श्रीयुत् विद्यासागर ने 'मूकमाटी' महाकाव्य के दूसरे सर्ग 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में बोध तथा शोध के अन्तर को निम्नलिखित छन्द में स्पष्ट किया है : "बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फूल ही तो शोध कहलाता है/बोध में आकुलता पलती है शोध में निराकुलता फलती है/फूल से नहीं, फल से तृप्ति का अनुभव होता है,/फल का रक्षण हो और फल का भक्षण हो;/हाँ ! हाँ !!/फूल में भले ही गन्ध हो पर, रस कहाँ उसमें!/फल तो रस से भरा होता ही है साथ-साथ/सुरभि से सुरभित भी ".!" (पृ. १०७) शोध की वस्तुनिष्ठता को रचनाकार ने निम्नलिखित पंक्तियों में अभिव्यंजित किया है : __ “अपना ही न अंकन हो/पर का भी मूल्यांकन हो।" (पृ. १४९) रचनाकार ने निम्नलिखित पंक्तियों में शोध-शैली के स्वरूप का भी संकेत किया है : “लम्बी, गगन चूमती व्याख्या से/मूल का मूल्य कम होता है सही मूल्यांकन गुम होता है ।" (पृ. १०९) रचनाकार की दृष्टि में तात्त्विक ज्ञान क्या है, वह निम्नलिखित पँक्तियों में देखा जा सकता है : “ 'स्व' को स्व के रूप में / 'पर' को पर के रूप में जानना ही सही ज्ञान है।" (पृ. ३७५) रचनाकार ने उक्त पहले छन्द में बोध और शोध में तात्त्विक अन्तर स्पष्ट किया है। 'बोध' गन्धयुक्त, रस शून्य पुष्प है और 'शोध' रस तथा सुरभि से युक्त फल है । फल में माधुर्य तथा आनन्द दोनों विद्यमान हैं। शोध परिशुद्ध ज्ञानजन्य आनन्द ही तो है। रचनाकार ने बहुत ही सटीक लिखा है- 'बोध में आकुलता है और शोध में निराकुलता।' वस्तुतः शोध का प्रथम सोपान बोध है । परिशुद्ध बोध ही शोध बनता है । शोध आत्मतोष को जन्म देता है । ज्ञान को निर्धान्त तथा निर्मल बनाता है शोध ।। दूसरे छन्द की पंक्तियों में रचनाकार ने आत्मनिष्ठता को शोध का बाधक तत्त्व माना है । वस्तुत: शोध की समस्त प्रक्रिया तथा पद्धति वस्तुनिष्ठ तथा वैज्ञानिक है । उसमें आत्मनिष्ठता का संस्पर्श स्थान पा ही नहीं सकता।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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