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454 :: मूकमाटी-मीमांसा
"परीषह-उपसर्ग के बिना कभी/स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि
न हुई, न होगी/कालिक सत्य है यह !" (पृ. २६६) चतुर्थ खण्ड में परिपूर्णता को प्राप्त कुम्भ के प्रति अभिव्यक्त विचार द्रष्टव्य हैं :
"कुम्भ के विमल-दर्पण में/सन्त का अवतार हुआ है
और/कुम्भ के निखिल अर्पण में/सन्त का आभार हुआ है।" (पृ. ३५४-३५५) माटी की महत्ता के प्रति कवि के विचार अवलोकनीय हैं :
- "माटी स्वर्ण नहीं है/पर/स्वर्ण को उगलती अवश्य ।" (पृ. ३६४-३६५) ० "हे स्वर्ण-कलश!/एक बार तो मेरा कहना मानो,
कृतज्ञ बनो इस जीवन में,/माँ माटी को अमाप मान दो।" (पृ. ३६६)
[सम्पादक- 'जैन प्रकाश' (पाक्षिक), नई दिल्ली, १५ जुलाई, १९९०]
पृष्ठ १०० हमें अपने शील-स्वभाष से/--... दाग नहीं लगा पाती वह
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