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452 :: मूकमाटी-मीमांसा
“इधर सागर की भी यही स्थिति है/चन्द्र को देख कर उमड़ता है
और/सूर्य को देखकर उबलता है।” (पृ. १९२) ___ एक ओर 'मूकमाटी' का कला पक्ष जहाँ अपनी इन्द्रधनुषी छटा बिखेर रहा है वहीं दूसरी ओर उसका भाव पक्ष अत्यन्त समृद्ध, पुष्ट, सर्वांग एवं सफल बन पड़ा है।
___ यह भाव पक्ष कहीं हिमगिरी की उत्तुंग ऊँचाइयाँ लिए काव्य को दृढ़ता प्रदान कर रहा है तो कहीं सरित् प्रवाह-सा निश्छल, छल-छल, कल-कल निनादित हो, प्रवाहित हो काव्य को गति प्रदान कर रहा है।
भक्तिकालीन सन्तों-सा कविश्री का हृदय व मनो-मस्तिष्क धन के लोभ की निन्दा करता है तथा अर्थ की निरर्थकता स्वीकारता है :
“यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं,
अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।” (पृ. १९२) करुणा, स्नेह एवं ममता को उन्होंने विशेष गुरुता प्रदान कर उच्चादर्शों की स्थापना की है। माता के सम्मान को अपरिहार्य व परम आवश्यक माना है । भारतीय संस्कृति में माता का स्थान सर्वोपरि माना है :
"माता का मान-सम्मान हो,/उसी का जय-गान हो सदा।" (पृ. २०६) इसके अतिरिक्त प्रचलित भारतीय सामाजिक मान्यताएँ, भारतीय संस्कृति व परम्पराओं का सफल निर्वाह भी किया गया है। चन्द्र ग्रहण व सूर्य ग्रहण के लगने पर परम्परानुसार अन्न-जल का त्याग करना पड़ता है। उसी का वर्णन देखें :
"सूर्य-ग्रहण का संकट यह/जब तक दूर नहीं होगा
तब तक भोजन-पान का त्याग !/जन-रंजन, मनरंजन का त्याग !" (पृ. २४०) इसके अतिरिक्त मांगल्य के प्रतीक स्वस्तिक चिह्न, कुंकुम, चन्दन, मंगल घट, कलश आदि का भी प्रसंगानुसार चित्रण भारतीय संस्कृति को मानों मुखरित-सा करता प्रतीत होता है :
"...सजाया हुआ/मांगलिक कुम्भ रखा गया
अष्ट पहलूदार चन्दन की चौकी पर।” (पृ. ३११-३१२) कुल मिलाकर 'मूकमाटी' एक ऐसा काव्य ग्रन्थ बन पड़ा है जो आत्म-दर्शन तो करवाता ही है, किन्तु साथ ही साथ परोक्ष रूप से प्रतीकात्मक शैली में आतंकवाद जैसी कुप्रवृत्तियों पर भी अंकुश लगाने का संकेत देता है।
और सबसे बड़ी बात तो यह है कि 'मूक्माटी' एक दार्शनिक, चिन्तक, साधक, इन्द्रियजित् तपस्वी का असत्य पर सत्य का, अमंगल पर मंगल का और अशुभ पर शुभ की अन्तिम विजय का अमर सन्देश देने वाला एक जयनाद है, एक अन्तर्नाद है, एक शाश्वत और अलौकिक जयघोष एवं अनूठी कृति भी है।