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________________ 450 :: मूकमाटी-मीमांसा 'ओम्' बना देता है ।/जहाँ तक शान्त रस की बात है वह आत्मसात् करने की ही है/कम शब्दों में/निषेध-मुख से कहूँ सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त रस है।” (पृ. १५९-१६०) 0 “शान्त-रस किसी बहाव में/बहता नहीं कभी । जमाना पलटने पर भी/जमा रहता है अपने स्थान पर ।” (पृ. १५७) करुणा की मीमांसा करते हुए वे कहते हैं : “करुणा तरल है, बहती है/ पर से प्रभावित होती झट-सी।" (पृ. १५६) वात्सल्य के विषय में आचार्यजी के विचार पठनीय हैं। वे कहते हैं : “वात्सल्य को हम/पोल नहीं कह सकते/न ही कपोल-कल्पित । महासत्ता माँ के/गोल-गोल कपोल-तल पर. पुलकित होता है यह वात्सल्य ।” (पृ. १५७) इस प्रकार का विवेचन अन्यत्र दुर्लभ है। प्रकृति अनादि काल से मानव की वांछित सहचरी रही है । कविमन तो मानों भ्रमर-सा न जाने प्रकृति की हृदयहारी छटा पर कितना गुंजार कर चुका है और न जाने कितने रूपों का उल्लेख कर चुका है । आचार्यशिरोमणि के प्रस्तुत काव्य में भी उन्होंने प्रकृति के नाना रूपों का कुशल चित्रण किया है । आलम्बन, उद्दीपन, मानवीकरण, प्रतीकात्मक, उपदेशात्मक, अलंकृत वातावरण-निर्माण में सहायक तथा परोक्ष सत्ता का आभास देता रहस्यात्मक आदि सभी रूपों में आचार्यजी का मन रमा है। विरहिणी माटी के दुःख को प्रकृति और अधिक बढ़ा देती है। विरह विधुरा माटी को रात्रि में निद्रा सहज नहीं आती । अत: वह व्याकुल है : "रात्री"/लम्बी होती जा रही है।/धरती को/निद्रा ने घेर लिया और/माटी को निद्रा/छूती तक नहीं।” (पृ. १८) किन्तु वही माटी शिल्पकार के आने के संवाद से, उसके आगमन के समाचार से आह्लादित है। और प्रकृति भी उसे अपने समान हर्षातिरेक से झूमती-सी, प्रफुल्लित दिखाई देती है : "और, हर्षातिरेक से/उपहार के रूप में/कोमल कोंपलों की हलकी आभा-घुली/हरिताभ की साड़ी/देता है रात को ।” (पृ. १९) आलम्बन रूप में कविश्री का हृदय अधिक रमा है । आलम्बन रूप का चित्रण सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है : "प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है/सर पर पल्ला नहीं है/और सिंदूरी धूल उड़ती-सी/रंगीन-राग की आभा-/भाई है, भाई ..!" (पृ.१) मानवीकरण की प्रवृत्ति तो काव्य के नामकरण द्वारा ही प्रदर्शित हो जाती है जिसमें प्रकृति के महत्त्वपूर्ण अंग माटी को मानव रूप दे काव्याधार बनाया गया है । वैसे मानवीकरण की प्रवृत्ति काव्य में सर्वत्र परिलक्षित होती है । "अबला बालायें सब/तरला तारायें अब/छाया की भाँति
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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