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मूकमाटी-मीमांसा :: 449
यमक की बहार देखें:
"किसलय ये किसलिए/किस लय में गीत गाते हैं।” (पृ. १४१) छन्द में आधुनिक छन्द प्रवृत्ति परिलक्षित होती है । काव्य मुक्त छन्द में है। छन्द भिन्न तुकान्त है, किन्तु अतुकान्त होते हुए भी उनमें लय का संगीत प्रत्येक पंक्ति में परिलक्षित होता है । छन्दों में गति, लय, ताल है और एक अद्भुत प्रवाह भी है। कहीं-कहीं तो काव्य में झरनों का संगीत ही छलक उठता है । काव्य में संगीत-सौरभ का आप भी पान करें:
"नया योग है, नया प्रयोग है/नये-नये ये नयोपयोग हैं नयी कला ले हरी लसी है/नयी सम्पदा वरीयसी है। नयी पलक में नया पुलक है/नयी ललक में नयी झलक है
नये भवन में नये छुवन हैं/नये छुवन में नये स्फुरण हैं।” (पृ. २६४) विभिन्न काव्य रसों का सुन्दर, अति सुन्दर परिपाक हुआ है। यद्यपि शान्त रस इस काव्य का अंगीरस है तथापि वात्सल्य, करुण, वीर, बीभत्स एवं रौद्र के अतिरिक्त शृंगार की झाँकी भी अत्यन्त मनोहारी बन पड़ी है। शृंगार की मनोरम झाँकी प्रकृति के माध्यम से अपनी अपूर्व छटा बिखेर रही है :
"लज्जा के घूघट में/डूबती-सी कुमुदिनी/प्रभाकर के कर-छुवन से बचना चाहती है वह;/अपनी पराग को-/सराग-मुद्रा को
पाँखुरियों की ओट देती है।” (पृ. २) यहाँ कुमुदिनी अपने प्रियतम अंशुमाली से लज्जित हो अपनी ही पाँखुरियों के अवगुण्ठन में छुपना चाहती है। प्रियतम अंशुमाली अपने किरण-करों से अवगुण्ठन के परे झाँकना चाहते हैं किन्तु कुमुदिनी देखने देती कहाँ है ? यह कल्पना कितनी कोमल, स्निग्ध, सजीव व मनोहारी बन पड़ी है। वात्सल्य का मनोरम दृश्य देखें :
“भानु की निद्रा टूट तो गई है/परन्तु अभी वह/लेटा है
मों की मार्दव-गोद में,/मुख पर अंचल ले कर/करवटें ले रहा है ।" (पृ. १) उषा माँ के रूप में चित्रित है तथा सूर्य पुत्र रूप में । यह कितना सुन्दर वात्सल्य में पगा चित्र है !
शान्त रस तो सर्वत्र छाया है । माँ धरती अपने उपदेशों व स्नेह-संस्पर्शन द्वारा माटी के आन्दोलित हृदय को अद्भुत शान्ति प्रदान करती है :
“सत्ता शाश्वत होती है, बेटा!/प्रति-सत्ता में होती हैं/अनगिन सम्भावनायें उत्थान-पतन की,/खसखस के दाने-सा/बहुत छोटा होता है
बड़ का बीज वह !” (पृ. ७) आचार्यश्री ने स्वयं रसों की व्याख्या करके पाठकों का मार्गदर्शन भी किया है । रसों की व्याख्या देखें : शान्त रस : ० "शान्त-रस का क्या कहें,/संयम-रत धीमान को ही