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448 :: मूकमाटी-मीमांसा
शब्द शक्तियों, यथा- अभिधा, लक्षणा व व्यंजना का सफल निर्वाह हुआ है। प्रसाद, माधुर्य व ओज गुणों का प्रयोग सिद्धहस्तता से किया गया है । भाषा समृद्ध है। भाषा में चित्रात्मकता, ध्वन्यात्मकता तथा वातावरण-निर्माण की क्षमता है । भाषा भावानुकूल है । शैली सरल है, कहीं भी क्लिष्ट या दुरूह नहीं बन पड़ी है।
प्रचलित मुहावरों का प्रयोग सहजता से अनायास एवं सटीक भी हुआ है। यह काव्य की एक अन्य विशेषता है। इससे भाषा में रोचकता आ गई है, यथा :
"नाक में दम कर रक्खा है" (पृ. १३५); "टेढ़ी खीर" (पृ. २२४) "कूट-कूट कर” (पृ.२२७); "गुरवेल तो कड़वी होती ही है
और नीम पर चढ़ी हो/तो कहना ही क्या !” (पृ.२३६) नीति व उपदेशपरक उक्तियों का प्रयोग अति सफलतापूर्वक किया गया है। उनमें ऐसी लयबद्धता है कि पाठक आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकता । कुछ शब्द चित्र देखें :
“आमद कम खर्चा ज्यादा/लक्षण है मिट जाने का
कूबत कम गुस्सा ज्यादा/लक्षण है पिट जाने का।” (पृ. १३५) ____ “आधा भोजन कीजिए/दुगुणा पानी पीव ।
__ तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी/वर्ष सवा सौ जीव !" (पृ. १३३) जहाँ रहीम जैसे कवियों ने जिह्वा को 'बावरी' कहा है, वहीं आचार्यजी ने भी उसकी निरर्थक वाचालता पर अंकुश लगाने का उपदेश दिया है :
“अनुचित संकेत की अनुचरी/रसना ही/रसातल की राह रही है।" (पृ. ११६) आचार्यजी ने जहाँ-जहाँ शब्दों को परिभाषित किया है, वहाँ-वहाँ प्रसंग चित्ताकर्षक व मनोहारी बन पड़े हैं। यह सम्भवत: आचार्यजी के इस काव्य में जितना दृष्टिगत होता है, वह अन्यत्र कहीं दुर्लभ ही नहीं अनन्य भी है। जैसे साहित्य को परिभाषित करते हुए आचार्यश्री कहते हैं :
“हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है और सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि जिसके अवलोकन से/सुख का समुद्भव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम
सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड"!" (पृ. १११) अलंकारों में शब्दालंकार, अर्थालंकार व उभयालंकारों की छटा अत्यन्त चित्ताकर्षक बन पड़ी है। जहाँ एक ओर अनुप्रास, यमक, श्लेष आदि का सफल निर्वाह हुआ है, वहीं दूसरी ओर उपमा, रूपक एवं उत्प्रेक्षा आदि की छटा अनुपम बन पड़ी है। अनुप्रास का प्रयोग तो काव्य में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण देखें :
"उत्तुंग ऊँचाइयों तक/उठने वाला ऊर्ध्वमुखी भी ईंधन की विकलता के कारण/उलटा उतरता हुआ अति उदासीन अनल-सम/क्रोध-भाव का शमन हो रहा है।" (पृ. १०६)