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मूकमाटी-मीमांसा :: 447
उधर विवेकहीन आतंकवाद भी अपनी गति तेज कर, पीछा करता-करता नदी में कूद पड़ता है । तैर नहीं पाने के कारण वह नदी में डूबने लगता है और अपनी भूल को स्वीकार कर सेठ परिवार से क्षमा माँगकर, उनसे शरण प्रदान करने की प्रार्थना करता है । विनाश का अन्त होता है। जीवन के प्रति आस्था ही मानों काव्य का लक्ष्य है । सन्त्रस्त मानव को आशा का सन्देश दे आचार्यजी ने जीवन के प्रति विश्वास जगाया है ।
तट पाकर सेठ व उसका परिवार चैन की साँस लेते हैं । यह वही तट है, जहाँ से माटी का उत्खनन हुआ था । युगों की कठोर कारा में कैद, उपेक्षिता, पद- दलिता, अकिंचन माटी को शिल्पकार के कुशल व स्नेहिल हाथों का स्पर्श हुआ था। उसे बन्धन मुक्त किया गया था। यहाँ माटी के कुम्भ का अपनी जननी धरती माँ से पुनर्मिलन होता है। साथ ही अपने मुक्तिदाता शिल्पकार से भी साक्षात्कार होता है।
असत् पर सत् की, हिंसा पर अहिंसा की, कुप्रवृत्तियों पर सुप्रवृत्तियों की, पाप पर पुण्य की और अमंगल पर मंगल की विजय दिखाकर मानवता का एक अद्भुत सन्देश दिया है।
अन्त में मोक्ष की व्याख्या की गई है। नदी तट पर ही कुछ दूर, एक विशाल वृक्ष की शीतल छाया के नीचे पाषाण फलक पर वीतराग साधु आसीन हैं। सभी उनके पास मोक्ष की कामना से जाते हैं । सन्त उपदेश दे मोक्ष की व्याख्या करते हैं :
"बन्धन - रूप तन, / मन और वचन का
आमूल मिट जाना ही / मोक्ष है।” (पृ. ४८६)
सन्तशिरोमणि द्वारा प्रदत्त प्रबोधन से कथा का समापन होता है। कथा सुखान्त है। काव्य का विवेचन करें तो पाएँगे कि कथा में माटी ही सर्वत्र प्रमुख पात्र के रूप में छाई है। उसका मानवीकरण किया गया है। अकिंचन माटी के उदात्त, धीर, गम्भीर गुणों के आरोप द्वारा आचार्यशिरोमणि ने मानव मात्र को सत्सन्देश दिया है।
सहिष्णुता, विनम्रता, सहृदयता, करुणा, स्नेह, दया, ममता, परोपकार आदि नाना सदाशयों व सद्गुणों से विभूषिता, संवेदनशीला माटी के त्याग की कथा ही वास्तव में इस काव्य की कथा है । इस काव्य का भावपक्ष कलापक्ष दोनों ही एक-दूसरे के परिपूरक हैं। दोनों पक्षों का निर्वाह अति सफल बन पड़ा है।
भाषा कोमलकान्त, स्वतःस्फूर्त, लयबद्ध व गतिमान् है । भाषा सरित् प्रवाह-सी निर्मल, निर्बाध व प्रवाहमयी है। यद्यपि संस्कृतनिष्ठ समास - बहुला - शब्दावली का प्रयोग यत्र-तत्र हुआ है, किन्तु वह प्रवाह में बाधक नहीं अपितु साधक है और काव्य में सौन्दर्यश्री की वृद्धि करती है। एक उदाहरण लीजिए :
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"कौन सहारा ? " सो सुनो ! / दृढ़ा धुवा संयमा- आलिंगिता यह जो चेतना है - / स्वयंभुवा काम करती है।" (पृ. २४२)
इस प्रकार तत्सम शब्दों का प्रयोग प्रयास करके चमत्कार प्रदर्शन की भावना से नहीं, सहज स्फूर्त ही हुआ है। पर भाषा कहीं भी क्लिष्ट नहीं हुई है।
खड़ी बोली के अतिरिक्त ब्रज, अँग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग भी यत्र-तत्र हुआ है । काव्य में आधुनिक युग में बहुचर्चित शब्दों जैसे- 'स्टार वार' आदि के प्रयोग द्वारा आधुनिकता का संस्पर्शन हुआ है । उर्दू के शब्दों का प्रयोग देखें :
“इस पर प्रभु फर्माते हैं।” (पृ. १५० )
'जब दवा काम नहीं करती / तब दुआ काम करती है । " (पृ. २४१ )