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मूकमाटी-मीमांसा :: 445 माटी के कायाकल्प का द्वितीय सोपान प्रारम्भ हो जाता है। प्रयोगशाला में उसे छाना जाता है, भिगोया जाता है, फुलाया जाता है एवं रौंदा जाता है। वह सब सहर्ष स्वीकार करती है। उसे नव-जीवन जो पाना है, नवीन कलेवर जो ग्रहण करना है । वह सभी कठोर से कठोर परीक्षाओं को कष्ट से सहते हुए भी सहर्ष उत्साह, उमंग के साथ पार करती जाती है।
शिल्पी उसे विशाल चक्र पर चढ़ाकर घट का आकार देता है । माटी की इस कथा के माध्यम से आचार्यशिरोमणि ने मानव मात्र को जीवन के प्रति आस्था का पावन सन्देश दिया है। जिस प्रकार माटी प्रत्येक कष्ट सहकर अन्त में नवीन, इच्छित कलेवर पा ही जाती है, उसी प्रकार प्रत्येक मानव कठोर साधना व एकनिष्ठा से अपने लक्ष्य तक पहुँच ही जाता
चाक पर चढ़ने के बाद माटी को सुन्दर, सुभग, मंगल घट का रूप प्राप्त होता है। शिल्पकार अपने कुशल हाथों से उसे मोहक आकार प्रदान करके सुन्दर चित्रों, अंकों आदि से सजाता है। किन्तु अभी कायाकल्प पूर्ण नहीं हुआ है, अधूरा है। अभी तो उसे अन्तिम सोपान अग्नि-परीक्षा से गुज़रना है । कच्चे घट को अवा में डाल दिया जाता है, जहाँ वह धू-धू करती लपटों में तपता है, दग्ध होता है और चरम विकसित रूप पा जाता है- श्यामल, किन्तु कान्तिमय व देदीप्यमान । अब वह माटी-सा चरणों में नहीं रौंदा जाएगा। अकिंचन-सा पद-दलित नहीं होगा। नहीं नहीं 'कदापि नहीं। अब तो उसे गौरवशाली स्थान प्राप्त होगा। गरिमामण्डित श्रेय एवं महिमामण्डित पद प्राप्त होगा। इधर माटी, जो कुम्भ का रूप प्राप्त कर चुकी है, उपर्युक्त विचारों में मग्न है। और इधर कुम्भकार अपनी नवनिर्मित कृति कुम्भ की पूर्णता को प्राप्त करने, अनेक जिज्ञासाएँ लिए अवा की ओर अग्रसर होता है। कितना कुतूहल है शिल्पकार के मन में अपनी इस नव कलाकृति के प्रति :
"ज्यों-ज्यों राख हटती जाती,/त्यों-त्यों कुम्भकार का कुतूहल
बढ़ता जाता है, कि/कब दिखे वह कुशल कुम्भ।” (पृ. २९६) और अवा की राख में कुम्भ दिख जाता है। राख से उसे बाहर निकाल कुम्भकार अत्यधिक हर्षित होता है। हो क्यों नहीं, कृति बनी जो अनुपम है।
इस प्रकार अनेक सहायक कथाओं के साथ कथा अग्रसर होती है । कथा में सर्वत्र रोचकता व जिज्ञासा बनी रहती है । पाठक यह विचार करता ही रहता है कि अब क्या होगा? पाठक की एकाग्रता कहीं खण्डित नहीं हो पाती। आचार्यश्री वाचक को सर्वत्र एकसूत्र में आबद्ध किए रहते हैं। और कथा अग्रसर होती रहती है ।
___ नगर के महासेठ एक रात स्वप्न देखते हैं। उस स्वप्न में वे अपने प्रांगण में पधारे भिक्षार्थी महासन्त का स्वागत कर रहे हैं। स्वप्न में यह भी देखते हैं कि वे माटी के एक अत्यन्त सुन्दर घट से महासन्त का पद-प्रक्षालन कर रहे हैं।
बस फिर क्या था, नींद खुलने पर महासेठ स्वप्नादेश से प्रेरित होकर तथा स्वप्न के माध्यम से संकेत पाकर अपने सेवक को कुम्भ लाने का आदेश देते हैं। सेठ का सेवक आदेश पाकर कुम्भकार के यहाँ पहुँचता है।
नवीनाकार प्राप्त माटी के नवीन गरिमामण्डित कान्तिमय घट को देखकर ग्राहक के रूप में आया सेठ का सेवक चमत्कृत हुए बिना नहीं रह पाता :
"ग्राहक के रूप में आया सेवक/चमत्कृत हुआ/मन-मन्त्रित हुआ उसका तन तन्त्रित - स्तम्भित हुआ/कुम्भ की आकृति पर/और
शिल्पी के शिल्पन चमत्कार पर।” (पृ. ३०६) कुम्भ को महासेठ के निवास स्थान पर लाया जाता है । नाना प्रकार से सजाया, सँवारा जाता है । कुम्भ के