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444 :: मूकमाटी-मीमांसा
और पातिता हूँ औरों से,/ अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !" (पृ. ४) उपर्युक्त पंक्तियों में वह माँ के सम्मुख अपनी व्यथा, अपनी वेदना व्यक्त करती है। कितनी सहज चित्रात्मकता है इन पंक्तियों में कि पुत्री अपना हृदय अपनी माता के समक्ष ही खोल सकती है, क्योंकि वही उसके सर्वाधिक निकट होती है। इसके अतिरिक्त उस पर ही उसे सर्वाधिक विश्वास भी होता है । अत: वह अपने बन्धित जीवन की मुक्ति का मार्ग पूछती है, परित्राण की दिशा जानना चाहती है। उसे कितनी वेदना है, कितनी व्यथा है :
“इस पर्याय की/इति कब होगी ?/इस काया की
च्युति कब होगी ?/बता दो, माँ इसे !" (पृ. ५) पुत्री के व्यथित हृदय को धैर्य बँधाती हुई माता की अनन्य आत्मीयता का संस्पर्शन होता है। धृति-धारिणी धरती माँ पुत्री को परम सत्ता का परिचय देकर, उसे मुक्ति की सम्भावनाओं की आशा से भर देती है। साथ ही वह कुम्भकार के आने का संकेत देकर उसे उमंग, आशा व आह्लाद से परिपूर्ण कर देती है :
"प्रभात में कुम्भकार आयेगा/पतित से पावन बनने, समर्पण-भाव-समेत/उसके सुखद चरणों में/प्रणिपात करना है तुम्हें,
अपनी यात्रा का/सूत्र-पात करना है तुम्हें !" (पृ. १६-१७) और सत्य ही मिट्टी के कायाकल्प हेतु प्रभात के साथ ही आगमन होता है कुशल शिल्पी का । उस निपुण शिल्पकार का, जिसकी प्रतीक्षा में पलक पाँवड़े बिछाए न जाने कितनी शताब्दियों से आकुल-व्याकुल-सी बैठी है माटी।
__ आज माटी को शिल्पी के आने पर उसके साथ प्रस्थान करना होगा। चिरकाल की साध पूरी होगी। यह उसकी प्रथम यात्रा है, प्रथम प्रवास है । अत: भोली जिज्ञासाएँ अन्त:स्थल में अंकुरित होती हैं। प्रतीक्षा की घड़ियाँ समीप आती जाती हैं और आखिर भोर के साथ ही शिल्पकार का आगमन भी हो जाता है। उस समय का कितना सुन्दर चित्र खींचा है आचार्यशिरोमणि ने :
“भोर में ही/उसका मानस/विभोर हो आया, और/अब तो वे चरण निकट-सन्निकट ही आ गये !/...वह एक कुशल शिल्पी है !/उसका शिल्प
कण-कण के रूप में/बिखरी माटी को/नाना रूप प्रदान करता है।” (पृ. २६-२७) शिल्पी माटी के कायाकल्प की शुरुआत करता है । ओंकार को नमन कर अपने कार्य में जुट जाता है। कार्य की पूर्ति के लिए उसे कुछ कठोर भी होना पड़ता है । क्रूर, कठोर कुदाली से सर्वप्रथम तो माटी पर प्रहार होता है । बन्धन से मुक्ति पाने का कटु व कष्ट कर प्रथम सोपान आरम्भ होता है। माटी खोदी जाती है। बोरी में भरी जाती है। वाहन है गदहा । उसके पृष्ठभाग पर बोरी लादी जाती है । यात्रा शुरू होती है । माटी नव-विवाहिता वधू-सी बोरी के छिद्रों से, अवगुण्ठन से झाँकती-सी अपने जीवन की प्रथम यात्रा के कुतूहल को शान्त करती प्रकृति के रम्य दर्शन में निमग्न हो जाती है । आचार्यश्री ने यहाँ नारी-मन की कोमलता व भावुकता तथा नववधू की लाजवती मानसिकता का इतना विशद रेखांकन किया है कि पाठक आत्मविभोर हुए बिना नहीं रह सकता बल्कि साथ प्रवाह में बह जाता है । यात्रा लम्बी है। किन्तु प्रत्येक यात्रा का कहीं न कहीं अन्त होता ही है । अत: माटी व शिल्पकार की यात्रा का भी अन्त होता है। और यह अन्त होता है शिल्पकार की प्रयोगशाला पर, उसके कलाकेन्द्र पर।