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________________ जीवन के शाश्वत सत्य को मुखर करती 'मूकमाटी' कृष्ण कुमार चौबे आज के इस भौतिकवादी, भोगप्रिय युग में मानव-मन एक दिग्भ्रमित मृग की तरह विभिन्न तृष्णाओं की तरफ सहज ही आकृष्ट हो जाता है । और परिणामस्वरूप अपने अस्तित्व की सर्वाधिक मूल्यवान् निधि, अपनी अन्तश्चेतना, अपनी संवेदनशीलता और आत्मबोध को गँवा बैठता है। इस अमूल्य निधि की खोज करने, उसे पाने और फिर अनन्त काल तक उसे सहेज रखने के लिए समय-समय पर चिन्तकों, ऋषियों, मनीषियों, योगियों, तपस्वियों, साधकों एवं आराधकों ने भी गहन चिन्तन-मनन के पश्चात् विश्व-मानव को जो साधना के पुष्प सौंपे हैं, वे पुष्प ही अपनी महक और ताज़गी से जीवन-कुंज को सुधि-सुरभि, रस-सौरभ और अलौकिक रंग-रूप प्रदान करते रहे हैं। ऐसी ही अनन्त पुष्प क्यारियों को रस, गन्ध, प्राण, स्पन्दन, चिरन्तन सौन्दर्य और इन्द्रधनुषी अमृत छटा सौंपनेवाली एक अनमोल कलाकृति है आचार्यशिरोमणि विद्यासागरजी की 'मूकमाटी'। "मृदु माटी से/लघु जाति से/मेरा यह शिल्प/निखरता है और खर-काठी से/गुरु जाति से/वह अविलम्ब/बिखरता है ।" (पृ. ४५) ये पंक्तियाँ माटी की मृदुलता की ओर इंगित करतीं, उसके लघु कलेवर की महत्ता जताती तथा शिल्प के निखार के लिए उसकी आवश्यकता को द्विगुणित करती हैं। उपर्युक्त पंक्तियाँ कुशल शिल्पकार के निर्णायक मस्तिष्क की परिचायक ही नहीं, वरन् काव्य के शीर्षक 'मूकमाटी' की सार्थकता को भी प्रतिपादित करती हैं। __. माटी की अपेक्षा गुरुगात कठोर तथा नीरस कंकरों से कही गई शिल्पकार की उपर्युक्त उक्ति प्रस्तुत काव्य के मर्म को, उसके सारांश को पाठक के अन्त:स्थल में समाहित कर जीवन के चिरन्तन, मूलभूत सत्य से, निर्विवाद यथार्थ से तथा काव्य में सर्वत्र प्रवाहित विनीत सेवा की भावना व निर्मलता से परिचित करा देती है। उपेक्षिता, पद-दलिता, परित्यक्ता, तिरस्कृता, अकिंचना माटी, जो सम्पूर्ण जीव-जगत्, चराचर सृष्टि की चरम परिणति है, उसकी महत्ता को ही आचार्यजी ने प्रस्तुत काव्य में प्रतिपादित किया है। इस मूकमाटी को काव्य के माध्यम से वाणी प्रदान की है । मानों शून्य में सृष्टि का निर्माण किया है तथा मानवीय कोमल भावनाओं के आरोपण द्वारा मृत्तिका में प्राण भरे हैं। . आचार्यशिरोमणि ने कथा का सूत्रपात प्रकृति की मनोरम छटा के वर्णन से किया है । रात्रि अपनी नीलिमा समेटे विगत हुई । भानु शैशवावस्था में माँ के आँचल में मुँह छुपाए लेटा-लेटा करवटें ले रहा है : “भानु की निद्रा टूट तो गई है/परन्तु अभी वह/ लेटा है/माँ की मार्दव-गोद में, मुख पर अंचल लेकर/करवटें ले रहा है।” (पृ. १) वात्सल्य के स्पर्श से कथा का प्रारम्भ होता है । प्रकृति के मोहक एवं कोमल चित्रों के चितेरे आचार्यजी प्रकृति के विभिन्न चित्रों का अंकन करते हुए हमें सरिता-तट की माटी के निकट ले चलते हैं, जहाँ वह धरती माँ से अपनी व्यथा-कथा कहने में उलझी है, लीन है : "और, संकोच-शीला/लाजवती लावण्यवती-/सरिता-तट की माटी अपना हृदय खोलती है/माँ धरती के सम्मुख !/स्वयं पतिता हूँ
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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