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________________ 442:: मूकमाटी-मीमांसा संवादहीनता सम्प्रेषण को अवरुद्ध करती है और यही अवरोध परस्पर वैमनस्य को भड़का रहा है। आतंकवादी हमलों से लेकर साम्प्रदायिक दंगों तक के बहुतेरे दृश्य, संवादहीनता की उपज हैं। ऐसी स्थिति में सम्प्रेषण के महत्त्व की नए सिरे से पड़ताल आवश्यक है, क्योंकि 'सम्प्रेषण वह खाद है जिसमें सद्भाव की पौध पुष्ट होती है ।' परस्पर के प्रति विश्वास, प्रेम और दया- यही हमारा मौलिक चरित्र है, किन्तु दया भाव के दमन का जैसा कुचक्र वर्तमान में चल रहा है, वह हमारे संस्कारवान् होने पर प्रश्नचिह्न लगाता है। प्रकृति प्रदत्त मनोभावों के यथोचित उपयोग को नकारना, किसी भी स्थिति में जनोपयोगी नहीं है, इसीलिए 'मूकमाटी' आचरण के प्रकटीकरण पर बल देती है । हम अपने आचरण से 'तीर्थ' को पा सकते हैं। 'शरणागत को तार कर तीर्थ लाभ' ले सकते हैं। तीर्थ क्षेत्र हमारे भीतर ही विद्यमान है, बाहरी क्षेत्र तो प्रतीक मात्र हैं । 'मूकमाटी' का आद्यन्त यही आग्रह है कि निर्धारित सांस्कृतिक मार्ग पर चल कर ही उन संकटों से पार पाया जा सकता है, जो हमें निरन्तर ह्रास की ओर ले जा रहे हैं । स्व के नियन्त्रण तथा अनन्त की आकुलता में वह शक्ति है जो आतंकी आचरण का मूलत: नाश कर सकती है, क्योंकि 'ढलान से लुढ़कती नदी पर्वत से कब बोलती है ?' वस्तुत: आचार्य श्री विद्यासागरजी की 'मूकमाटी' की सांस्कृतिक चेतना हमारे समक्ष मानव होने बनने के सच्चे अर्थों को खोलती है। वह लोक से परलोक, अशान्ति से अखण्ड शान्ति, दुःख से सात्त्विक सुख की प्रणेता है, अत: उसकी प्रेरणाओं को गम्भीरता से लेना होगा । पृष्ठ इट क्योंकि, सुनो ! या 'द दया |
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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