________________
'मूकमाटी' की सांस्कृतिक चेतना
डॉ. सन्ध्या टिकेकर
'मूकमाटी' सांस्कृतिक चेतना से सम्पन्न काव्य है । इस दृष्टि से 'मूकमाटी' शीर्षक का विशेष प्रयोजन है। मूक का अर्थ 'मौन' नहीं है । मौन में स्वेच्छा हो सकती है, मूक में विवशता । मौन में सामर्थ्य है, मूक असमर्थ, चाह कर भी न बोल पाने की विवशता से भरा । 'मूकमाटी' का मूल कथ्य भी यही है । भारतीय संस्कृति - दर्शन में 'शब्द' का विशेष महत्त्व है । शब्द ही ब्रह्म है। शब्द का अर्थ समझ लिया, तो समझो ब्रह्म को समझ लिया, लेकिन यहीं एक महीन अन्तर भी है कि ब्रह्म को समझना, ब्रह्म को पाना नहीं है । ब्रह्म को समझने के धरातल पर पहुँचते-पहुँचते शब्द मात्र माध्यम रह जाता है, और सन्तों को कहना पड़ता है कि वह अखण्ड - अनन्त शब्दातीत है, दृश्यातीत है और वर्णनानीत है । इस दृष्टि से 'मूकमाटी' की व्यथा भी वस्तुत: कवि की अन्तर व्यथा है । कवि अखण्ड सत्ता तक अपनी बात पहुँचाने में लौकिक माध्यम को अक्षम पाता है, फलत: अखण्ड से मिलने की व्याकुलता उसे बराबर व्यथित करती रहती है । विरह की यही तड़प हमारी संस्कृति का मूल है। यही वह चेतना है, जो हमें इस ओर से जागृत रखती है कि 'मैं' (अहम्) की अपनी सीमाएँ हैं । यह मैं हमें भले ही सब कुछ दे दे, परन्तु सच्चा सुख नहीं दे सकता । 'मैं' को विगलित कर जीने में ही परम सन्तोष है । 'कल्पना' और 'अनुमान' से परे का यथार्थ जीवन ही सच्चा सुख दे सकता है, क्योंकि ‘कल्पना जमीन से उखाड़ती है और अनुमान प्राय: गलत सिद्ध होते हैं।'
स्व-मूल्यांकन हमारा सांस्कृतिक चरित्र है। इसी के चलते आज भी ऐसे ही चरित्र विश्वसनीय हैं, जो सहज - सरल हैं, जिन्होंने दिखावे के आवरण से स्वयं को सुरक्षित रखा है, जो स्वाभाविक जीवन जीते हैं, उनका 'आचरण प्रकट होता है, आवरण नहीं ।' स्व-मूल्यांकन के अभाव में, आचरण - आवरण के दोहरे चरित्र के कारण मानव जाति का जो सांस्कृतिक ह्रास रहा है, वही 'मूकमाटी' की चिन्ता है ।
आज ‘शब्दार्थ’ की घोर उपेक्षा हो रही है। ब्रह्म तुल्य शब्द का अर्थ-मूल्य न समझने के कारण हमारी वैचारिक दृष्टि भ्रमित हो रही है । यह विचार भ्रम मानव समाज में जिस अव्यवस्था को जन्म दे रहा है, उसमें 'प्रशस्त आचारविचार वालों की जीवन की अवधारणा' चूर-चूर हो गई है। 'स्वतन्त्रता' की इच्छा का स्थान ढेर सारे बन्धनों ने ले लिया है । बन्धनों से मुक्त होने और मुक्त करने की 'स्वतन्त्रता' की सात्त्विक संकल्पना यहाँ एकदम उलट गई है । स्वतन्त्रता 'स्वच्छन्दता' का पर्याय बन चुकी है और इसी स्वच्छन्द वृत्ति के कारण धन संग्रह की लालसा ने एक ओर पूँजीवादी व्यवस्था को पनपाया है, तो दूसरी ओर चोरी - भ्रष्टाचार की वृत्ति को सिंचित-पोषित किया है। आतंकवाद की जिस समस्या से विश्व आए दिन जूझ रहा है, वह इसी पूँजीवाद का प्रतिफलन है। ‘मरो या हमारा समर्थन करो' के आतंकी आचरण ने जीना दूभर कर दिया है। धन और सुविधा उपभोग की तीव्र लालसा इसका केन्द्रीय कारण है। जबकि धन का समुचित वितरण हमारी संस्कृति का चरम लक्ष्य है। “साईं इतना दीजिए, जा में कुटुम्ब समाय । मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय” का भी वस्तुत: यही निहितार्थ है ।
श्रम की महत्ता हमारी संस्कृति का अनूठा लक्षण है । स्वेद - बिन्दुओं के उत्कृष्ट सौन्दर्य-वर्णन श्रम की महत् को रेखांकित करते हैं। इस घोर भोगवादी युग में श्रम को क्रूरता से कुचला जाना, 'मूकमाटी' में गहरी चिन्ता को उपजाता है। बिना श्रम के निरन्तर सुविधाओं से प्राप्त होने वाला जीवन अर्थात् संघर्षहीन जीवन-यात्रा में 'मूकमाटी' एक ऐसे अपकर्ष को देखती है, जिसका उत्थान लगभग असम्भव है ।
'संवादहीनता' आज का एक बड़ा मानवीय संकट है। यह मानव जाति के लिए बद से बदतर की स्थिति है ।
-