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मूकमाटी-मीमांसा :: 439
देता है। तभी सहसा एक आकाशवाणी का अवतरण होता है, जो उन्हें श्रमविहीन द्रव्य से दूर रहने को कहती है, किन्तु अर्थ के आकर्षण से बँधे वे मुक्ता उठाने को हाथ बढ़ाते हैं तो उन्हें वृश्चिक दंश का अनुभव होता है । सभी विष से प्रभावित होते हैं। राजा भय से ग्रस्त हो उठता है । उसे जड़ता आ घेरती है।
तभी आ पहुँचता है कुम्भकार । अपने आँगन में मूर्च्छित मन्त्री परिषद्, स्तम्भित राजा और पृष्ठभूमि में बिखरे मुक्ता दल को देखकर विस्मय, विषाद और विरति से भर उठता है कुम्भकार का मन । उसे ग्लानि होती है इस दृश्य पर, क्योंकि वह तो मंगल घट की निर्माण-प्रक्रिया में है और अपक्व मंगल घट के पार्श्व में यह अमंगल ? फिर उसका वास्तविक स्वरूप उदित होता है जो इस अमंगल का निवारण करता है। तभी अपक्व कुम्भ मनुष्य की अर्थ-कामना पर विचार व्यक्त करता है । अन्तत: कुम्भकार सम्पूर्ण मुक्ता राशि राजकोष को समर्पित कर देता है।
उधर ईर्ष्याग्रस्त सागर माटी की गरिमा-महिमा को आत्मसात नहीं कर पाता है। वह घट समह को गलाने के लिए मेघों की सृष्टि करता है । मेघ अविलम्ब मैदान में आते हैं, जहाँ जलकणों और भूकणों का संघर्ष होता है ।
अपक्व मंगल घट न भयत्रस्त है न सन्तप्त । तभी उपाश्रम के आँगन में मुकुलित गुलाब पुष्प के आमन्त्रण पर पवन आता है और निर्देश पाकर बादलों को भगा देता है।
इसके पश्चात् मनोरम वातावरण में कुम्भकार अवा लगाता है । निश्चित अवधि के बाद उसे खोलता है और कुम्भ को बाहर निकालता है। कुम्भ का निष्कलुष रूप देखकर कुम्भकार प्रसन्न वदन हो उसे निकाल कर धरती पर रखता है। नगर सेठ ने रात में एक स्वप्न देखा कि वे माटी का मंगल घट हाथों में लिए महासन्त का स्वागत कर रहे हैं।
प्रात: उठते ही उन्होंने सेवक को माटी का कुम्भ लाने का निर्देश दिया ! सेवक कुम्भकार के यहाँ से कुम्भ लाता है। उसमें वह कुम्भ भी है । नगर सेठ उस कुम्भ पर मांगलिक चिह्न अंकित करता है। सर्वप्रथम कुम्भ को शीतल जल से स्नान कराया जाता है । दायें हाथ की अनामिका से उस पर चन्दन से स्वस्तिक बनाता है। कुम्भ पर अंकित चारों पाँखुरियों में केसर मिश्रित चन्दन से चार-चार बिन्दियाँ लगाता है, फिर प्रत्येक स्वस्तिक के शीर्ष पर ओंकार अंकित करता है । कण्ठ पर हल्दी की दो पतली रेखाएँ खींचता है। उन्हें कुंकुम से सजाता है। कुम्भ के मुख पर पान-पत्र रखता है और उनके ऊपर श्रीफल । फिर उस पर हलदी-कुंकुम छिड़कता है । श्रीफल की चोटी को गुलाब पुष्प से सज्जित करता है । इसके पश्चात् मंगल घट को चन्दन की चौकी पर प्रतिष्ठित कर देता है।
फिर नगर सेठ प्रभु पूजा में निमग्न हो जाता है। पूजन से निवृत्त हो प्रांगण में मंगल घट ले खड़ा हो जाता है अतिथि की प्रतीक्षा में। तभी आगमन होता है अतिथि का।
मार्ग में अनेक दाता खड़े थे इस आशा से कि सम्भवत: अतिथि की कृपा दृष्टि उन पर हो जाए तो उनके भाग्य खल जाय। अतिथि एक विशिष्ट पण्य के आकर्षण से बँधे-से चले जा रहे थे कि नगर सेठ को सामने मंगल घट लिए खडा देख ठिठक जाते हैं।
नगर सेठ अपने को धन्य मानता है तथा अतिथि को दाँयी ओर कर उनकी सपरिवार तीन बार प्रदक्षिणा करता है। उन्हें आसन ग्रहण करवाता है। फिर उनके पद माटी के कुम्भगत जल से प्रक्षालित करता है । कुम्भ को गुरु-पदनख-दर्पण में अपना बिम्ब दिखाई पड़ता है । सहसा उसके मुख से 'धन्य-धन्य' की ध्वनि निकल पड़ती है।
पद-प्रक्षालन के पश्चात् नगर सेठ सपरिवार गन्धोदक मस्तक पर लगाता है । तभी भोजनोत्सुक अतिथि खड़े हो जाते हैं कर-पात्र बना करके । जैसे ही दान-प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, अतिथि कर-पात्र बन्द कर लेते हैं। स्वर्णरजत-स्फटिक के पात्रों में दुग्ध, गन्ना, दाडिम रस लाया गया किन्तु अतिथि का कर-पात्र नहीं खुला । तब नगर सेठ ने माटी के कुम्भ को आगे बढ़ाया तो अतिथि का कर रूपी पात्र खुल गया । जल-पान हुआ तत्पश्चात् भोजन।