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माटी की सौन्दर्य-यात्रा का काव्य : 'मूकमाटी'
डॉ. चन्द्रगुप्त 'मयंक' भौतिक काया में अध्यात्म का अन्वेषण है 'मूकमाटी'। सन्त कवि श्री विद्यासागरजी ने इस असहज कार्य को सहज ही सम्पादित कर साहित्यश्री को अभिमण्डित किया है । 'मूकमाटी' की वाणी का श्रवण, श्रवणगत अनुभूति को चिन्तन की खराद पर चढ़ा कर, ज्ञान की छैनी से तराशकर जिस अद्वितीय सौन्दर्य की संरचना सन्त कवि ने की हैउसका नाम है 'मूकमाटी' । वस्तुतः 'मूकमाटी' माटी की सौन्दर्य यात्रा का काव्य है।
इस काव्यकृति का कथा सूत्र इतना महीन है कि उसे समझने के लिए आत्म-चक्षु का सचेतन होना आवश्यक है, चर्म-चक्षु के बस का नहीं है यह काम । सामान्य पाठक के लिए उसके काव्यत्व का आस्वाद ग्रहण करना तो सहज है किन्तु उस काव्यत्व के आवरण में अध्यात्म का जो सौन्दर्य निखरा है, उसका आनन्द अन्त:चक्षु से ही मिल सकता है।
वस्तुतः 'मूकमाटी' ज्ञान-विज्ञान के साथ ही चिन्तन और मनन के नए वातायन निर्माण में सक्षम है । निःसन्देह आचार्यश्री ने अपने अनुभव और अध्ययन के साथ चिन्तन और मनन को समन्वित कर हिन्दी काव्य को नए आयाम देने का प्रयास किया है । विश्व समाज की सन्तप्त देह के लिए शीतल हवा का झोंका है- 'मूकमाटी' का अवतरण।
"चोर इतने पापी नहीं होते/जितने कि
चोरों को पैदा करने वाले ।” (पृ. ४६८) उस अनाम स्थान पर कथा का प्रारम्भ प्रात: सन्धिवेला में होता है जहाँ माटी अपनी जननी माँ धरित्री के आँचल में कुनमुना रही है। वह अपनी अन्तर्व्यथा को अभिव्यक्त करती है। उसका दर्द इन शब्दों में उभरता है :
“पद दो, पथ दो/पाथेय भी दो माँ !" (पृ. ५) माँ अपनी सुता के इस प्रश्न से अभिभूत हो उठती है, उसे सान्त्वना देती है :
"जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है
मति जैसी, अग्रिम गति/मिलती जाती "मिलती जाती"।" (पृ. ८) यह शाश्वत सत्य है । मनुष्य संगति से पहिचाना जाता है । अंग्रेजी में कहा गया है :
"A man is known by the company he keeps." माँ का कथन है कि 'आस्था' से ही जीवन की सार्थकता सम्भव है । इसके लिए आवश्यक है-साधना :
"आस्था के बिना रास्ता नहीं।” (पृ. १०) साधना सुगम नहीं है । सावधानी आवश्यक है फिर भी स्खलन की सम्भावना को नकारना मूर्खता है। धरती माँ के इस कथन के मर्म से माटी स्पन्दित हो उठती है और माँ के निर्देश पर समर्पित भाव से कुम्भकार की शरण ग्रहण करती है। कुम्भकार धरित्री के आँचल से माटी खोदता है । माटी कुदाली के आघात सहती है-मौन ! मूक !! क्यों ? :