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436 :: मूकमाटी-मीमांसा
विद्यासागरजी ने माटी की घटत्व में महिमामयी परिणति को ही अपने काव्य का विषय बनाया है । मानव भी माटी की भाँति नि:स्व और निष्क्रय है। उसके जीवन की सार्थकता तो परमार्थोपदेशक समर्थ गुरु का सशक्त सम्बल और करुणामय पारस स्पर्श पाकर अपनी क्षुद्र - उपेक्षित व्यक्ति सत्ता को घटत्व (लोककल्याण के लिए स्वयं को अशेष भाव से अर्पित कर देने) में परिणत कर देने में है । 'गदहा ' ( गधा ) भी नि:स्व है, क्योंकि वह माटी को अपनी पीठ पर ढोकर कुम्हार के कार्यस्थल तक ले जाता है, फिर खाली हो जाता है, उसके पास कुछ नहीं रह जाता । किन्तु इस उपेक्षित निमित्त कारण की भी अपनी अनुपेक्षणीय महत्ता और उपयोगिता है, क्योंकि स्वार्थ से सर्वथा अछूता उसका जीवन परार्थ लिए समर्पित है। माटी की घटत्व - परिणति में उसकी बस यही पारमार्थिक अभिलाषा है :
"मेरा नाम सार्थक हो प्रभो ! / यानी / 'गद' का अर्थ है रोग 'हा' का अर्थ है हारक / मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ / बस, और कुछ वांछा नहीं/गद - हा गदहा !" (पृ. ४० )
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किसी साधक के सिद्धिमार्ग में गधे की भाँति सहायक होना भी कम सार्थक और महत्त्वपूर्ण नहीं है । गधे की इस महत् आत्माभिलाषा में परसन्तापहरण के लिए 'मोक्ष' (अपुनर्भव) को भी ठुकरा देने वाले परम भागवत महाराज रन्तिदेव की उद्घोषणा श्रीमद् भागवत महापुराण में जैसे साकार हो उठी है :
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'न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् परामष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा ।
आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजामन्तः स्थितो येन भवन्त्यदुःखाः || ” (९/२१/१२)
पृष्ठ २५८-२५८ फूल ने पवन को
और कोई प्रयोजना नहीं---- हाँ !