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सिद्ध सर्जक की मुखर साधना : 'मूकमाटी'
डॉ. दादूराम शर्मा काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने काव्य के छः प्रयोजन या उद्देश्य बतलाए हैं- १. यशःप्राप्ति, २. अर्थप्राप्ति, ३. व्यवहार ज्ञान, ४. शिवेतरक्षति, ५. सद्य: परनिर्वृत्ति या लोकोत्तरानन्द की प्राप्ति और ६. कान्तासम्मितोपदेश। इनमें अन्तिम तीन काव्य के महत् उद्देश्य हैं। 'स्व' की कारा से मुक्त होने पर ही व्यक्ति को लोकोत्तरानन्द की अनुभूति हो सकती है। यह 'स्व' की कारा है इन्द्रिय परायणता तथा अपने और पराए का भेदभाव। उससे मुक्ति का सुगम उपाय है काव्य का कान्तासम्मितोपदेश-सहधर्मिणी पत्नी की भाँति सरस, प्रेरक मार्गदर्शन । इसमें दर्शन की-सी दुरूहता और धर्मग्रन्थों का-सा नीरस शाब्दिक उपदेश नहीं होता। 'शिवतरक्षति' अर्थात् आत्मकल्याण और लोकमंगल काव्य का चरम लक्ष्य है। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में :
"कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥" गंगा की तरह जन-मन और लोक-जीवन के कल्मषों का प्रक्षालन कर लोक-कल्याणकारी समाज की संरचना करना ही काव्य (भणिति) का अन्तिम लक्ष्य है।
धर्म के उपदेश सीधे-सीधे हृदय में नहीं उतरते, मन को बाँध नहीं पाते, हमारी प्रसुप्त चेतना को तीव्रता से झकझोर कर जगा नहीं पाते और कर्तव्य की उद्दाम प्रेरणा से हमें ऊर्जस्वित नहीं कर पाते, तभी तो बौद्ध धर्मोपदेष्टा महाकवि अश्वघोष जैसे को सरस काव्य का आश्रय लेना पड़ा था :
"इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भाकृतिः ।
श्रोतॄणां ग्रहणार्थमन्यमनसां काव्योपचारात् कृता ॥"(सौन्दरनन्द, १८/६३) दिगम्बर जैन सन्त आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने मुमुक्षु जीव के साधनापथ की दुरूह, जटिल, बोझिलता और मनोमलों तथा सांसारिक राग-द्वेषों की अभितप्तता को अपनी कविता-गंगा की धारा में शीतल, पावन और ग्राह्य बना दिया है । 'मूकमाटी' उनका प्रतीकात्मक महाकाव्य है । इसे रूपक काव्य भी कह सकते हैं । 'माटी' मुमुक्ष या साधक जीवात्मा है। धरती माता' विराट चित्शक्ति या परमात्म तत्त्व का प्रतीक है। 'कुम्भकार' मुक्तिमार्गोपदेष्टा गुरु है। सन्त-काव्य-परम्परा में इस विचारणा के उत्स को बाबा कबीर की इस साखी में खोजा जा सकता है :
"गुरु कुम्हार घट सिष है, गढ़-गढ़ छाँटै खोट ।
अन्तर हाथ सहार दे, बाहर मारै चोट ॥" मिट्टी स्वयं नि:स्व और निष्क्रिय है । उसकी सार्थक सक्रियता दो रूपों में प्रकट होती है- (१) क्षुधित लोक की बुभुक्षा को शान्त करने के लिए अपनी कोख से बीज को फलदार पेड़ के रूप में जन्म देकर या अपनी छाती पर लहलहाती फसल उगाकर और (२) पिपासाकुल जनों की प्यास बुझाने के लिए स्वयं को घट रूप में परिणत करके । प्रथम स्थिति में उसका अस्तित्व अविकल रहता है । वह श्रमजीवी कृषक का सान्निध्य पाकर बीज प्ररोह का प्रधान निमित्त कारण ही बन पाती है जबकि दूसरी स्थिति में वह कुम्भकार के पारस करों के संस्पर्श से घटत्व का उपादान कारण बन जाती है।